स्वतंत्रता पर जे. एस. मिल के विचारों की विवेचना कीजिए
स्वतंत्रता पर मिल के विचार-मिल की कृति ‘On Liberty’ स्वतंत्रता पर आज तक लिखे गए लेखों में उत्तम मानी जाती है। यह राज्य, सामाजिक दबावों, जनमत तथा रीतिरिवाजों के विरुद्ध व्यक्ति की विचाराभिव्यक्ति तथा अपनी मर्जी से कार्य करने की स्वतंत्रता के लिए एक शक्तिशाली अनुरोध है। स्वतंत्रता की व्याख्या करते हुए मिल के सामने एक विशिष्ट लक्ष्य था-व्यक्ति के आत्मविकास का लक्ष्य। मिल के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मर्जी तथा अनुभव के आधार पर जीने का विशेषाधिकार है। रीतिरिवाजों तथा परंपराओं का अनुसरण करने वाले व्यक्ति की कोई पहचान नहीं होती, उसके जीवन में कोई विकल्प नहीं होता, उसके पास अपने पूर्वजों की नकल करने के सिवाय और कुछ नहीं होता।
समाज के विभिन्न व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न तरीकों से जीवन जीने का हक होना चाहिए, क्योंकि यही भिन्न स्वतंत्रता का आधार है। जिस स्वतंत्रता की मिल चर्चा करते हैं वह व्यक्ति की अपने व्यक्तित्व का विकास तथा प्रसार करने की स्वतंत्रता है अतः यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि स्वतंत्रता की परिभाषा इन शब्दों में करते हैं, ‘व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार अपने हित पूरे करने की छूट, बशर्ते कि वह दूसरों के इन्हीं हितों की पूर्ति में बाधा नहीं बनता।’ इस तरह परिभाषित करने में स्वतंत्रता एक उद्देश्य प्राप्ति का साधन बन जाती है और वह उद्देश्य है: व्यक्ति का सुख। वह आगे लिखते हैं, ‘व्यक्ति अपने व्यवहार के केवल उस पक्ष के लिए ही समाज के प्रति उत्तरदायी है जो दूसरों को प्रभावित करता है जिसका प्रभाव उसके अपने ऊपर पड़ता है, उस क्षेत्र में उसकी स्वतंत्रता संपूर्ण है। स्वयं पर, अपने शरीर और मन पर व्यक्ति स्वयंभू है। ।
समाज के किसी भी सदस्य पर राज्य की शक्ति का न्यायसंगत प्रयोग केवल उसे दूसरों को हानि पहुँचाने से रोकने के लिए ही किया जा सकता है।’ व्यक्ति के नैतिक अथवा भौतिक हित के नाम पर भी किसी प्रकार का हस्तक्षेप अन्यायपूर्ण है। किसी भी व्यक्ति को कोई भी कार्य करने के लिए इसलिए मजबूर नहीं किया जा सकता कि यह उसके भले के लिए है या यह उसके सुख में वृद्धि करेगा या बड़े-बूढ़ों के अनुसार यह ठीक है। ये अपने आप में अच्छे कारण हो सकते हैं, परंतु यदि कोई ऐसा नहीं करता तो इसके लिए उसे सजा देना गलत होगा।
स्वतंत्रता की प्रकृति
स्वतंत्रता की उपरोक्त परिभाषा से एक बात स्पष्ट है कि मिल जिस स्वतंत्रता की बात कर रहा है वह है व्यक्ति की स्वतंत्रता। व्यक्ति अपने शरीर तथा मन का खुद मालिक है और उसे अपनी मर्जी से जीने के लिए अकेला छोड़ दिया जाना चाहिए। समाज को उसके ऊपर किसी प्रकार का बंधन लगाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि सभी प्रकार के बंधन मूलतः गलत होते हैं। कार्य करने की स्वतंत्रता के संदर्भ में मिल ने व्यक्ति की गतिविधियों को दो भागों में बाँटा-वे कार्य जिनका प्रभाव स्वयं व्यक्ति पर पड़ता है तथा वे कार्य जिनका प्रभाव दूसरों पर पड़ता है। आत्मप्रभावी कार्यों में मिल ने संपूर्ण स्वतंत्रता का समर्थन किया।
व्यक्ति के केवल उन्हीं कार्यों पर सीमाएँ लगाई जा सकती हैं जिनका प्रभाव दूसरों पर पड़ता है। स्वयं-प्रभावी कार्यों के लिए समाज को चाहिए कि वह व्यक्ति को अकेला छोड़ दे। इन स्वयं-प्रभावी कार्यों में मिल ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता, आत्मा की स्वतंत्रता, चिंतन, भावना, धर्म, नैतिकता आदि के बारे में मत, अपने जीवन के उद्देश्य, व्यवसाय, विवाह आदि की स्वतंत्रता को निहित किया।
जे. एस. मिल दूसरा विचार ,
मिल व्यक्ति की स्वतंत्रता राज्य तथा समाज दोनों से सुरक्षित करना चाहता है। मिल अपनी रचनाएँ उस समय लिख रहे थे जब प्रजातंत्र का उदय हो रहा था और राजनीति में हिस्सा लेने का अधिकार समाज के उन लोगों को भी प्राप्त होने लगा था जिन्हें राज्य के हस्तक्षेप से लाभ हो सकता था। ऐसा अनुभव किया जाने लगा था कि लोगों के कल्याण में वृद्धि करने में राज्य सकारात्मक और न्यायोचित भूमिका निभा सकता है। तथापि मिल सभी लोगों को वोट का समान अधिकार देने वाले प्रजातंत्र के पक्ष में नहीं था। उसका विचार था कि स्वशासन या ‘जनशक्ति’ (Power of People) जैसी धारणायें मिथ्या अधिक और सच कम हैं। जनशक्ति का अर्थ है समाज के बहुसंख्यक अथवा समाज के राजनीतिक दृष्टिकोण से सक्रिय सदस्यों की शक्ति या कह लीजिए-बहुमत। परंतु इस ‘बहुमत की तानाशाही’ में अल्पमत की स्वतंत्रता नष्ट हो सकती है। प्रजातंत्र का यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि वह अल्पमत की स्वतंत्रता समाप्त कर दे। अतः व्यक्ति की स्वतंत्रता को एक प्रजातांत्रिक राज्य से भी सुरक्षित करने की जरूरत है। मिल ने उन लोगों की तीव्र आलोचना की जो एक शक्तिशाली राज्य के लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बलि चढ़ाने को तैयार हैं क्योंकि राज्य की कीमत उन लोगों की कीमत से ज्यादा नहीं होती जो इसकी रचना करते हैं। मिल के अनुसार, ‘वह राज्य जो अपने नागरिकों को (चाहे कल्याणकारी उद्देश्यों से प्रेरित होकर ही सही) इस. कदर बौना बना देता है कि वे उसके लिए एक आज्ञापरायण यंत्र से अधिक न हों, जल्द ही यह अनुभव करेगा कि छोटे लोगों से बड़े लक्ष्यों की प्राप्ति नहीं हो सकती।’ 1
जे. एस. मिल तीसरे विचार ,
जिस तरह मिल ने इस भ्रम को तोड़ा कि निरंकुश सरकारों को यदि प्रजातांत्रिक सरकारों में बदल दिया जाए तो स्वतंत्रता स्वयमेव सुरक्षित हो जाएगी, उसी तरह उसने इस तथ्य पर विशेष बल दिया कि सामाजिक निरंकुशता कई बार राजनीतिक उत्पीड़न से ज्यादा भयंकर होती है, क्योंकि यह बचाव के कोई रास्ते नहीं छोड़ती और व्यक्ति के जीवन में गहराई तक पहुँचने में सफल रहती है। अतः स्वतंत्रता की केवल राजनीतिक निरंकुशता से ही नहीं, बल्कि प्रचलित विचारों, भावनाओं और परंपराओं की निरंकुशता से भी सुरक्षा जरूरी है।
व्यक्तिगत विचाराभिव्यक्ति में सबसे बड़ी बाधा समाज का विरोध होता है। जब-तब कुछ ऐसी शक्तियाँ खड़ी हो जाती हैं जो इनकी प्रतिकूलता का विरोध करती हैं। मिल स्वतंत्र विचाराभिव्यक्ति के मार्ग में आने वाली बाधाओं को हटाना चाहते थे। जैसे कि वे लिखते हैं: जब समाज स्वयं तानाशाही हो तो तानाशाही को केवल राजनीतिक शासकों के स्तर तक की सीमित नहीं रखा जा सकता। समाज अपने आदेशपत्र लेकर चलता है और जब इन्हें पूरा करने के लिए यह व्यक्ति के जीवन में हस्तक्षेप करता है तो यह ऐसी तानाशाही चला रहा होता है जो राजनीतिक उत्पीड़न से भी अधिक भयानक होती है।
जे. एस. मिल चौथे विचार ,
स्वतंत्रता के संदर्भ में मिल ने समाज में प्रचलित जनमत, भावनाओं तथा संवेदनाओं की तानाशाही के विरुद्ध व्यक्ति की स्वतंत्रता को विशेष महत्त्व दिया। उसके अनुसार किसी भी सरकार अथवा समाज को व्यक्ति के विचारों को दबाने का हक नहीं है चाहे इसके लिए उसे सारे समाज की स्वीकृति प्राप्त हो। किसी भी भिन्नमतावलम्बी का ऐसा गैर-परंपरावादी विचार हो सकता है जो पूर्णतया ठीक या पूर्णतया गलत या आंशिक रूप से गलत/ठीक हो। यदि वे सत्य हैं तो उन्हें दबाना समाज के लिए एक कलंक होगा। किसी भी प्रकार के विचारों अथवा मत को जबरदस्ती दबाना भ्रमातीत की पूर्वधारणा पर आधारित है।
मिल का प्रसिद्ध वाक्य था-यदि सारे मानव समाज के विचार एक हैं और एक व्यक्ति का विचार उससे भिन्न है, तो सारी मानव जाति को भी यह अधिकार नहीं है कि उस व्यक्ति के विचार को दबा दे और न ही उस व्यक्ति को अधिकार है कि यदि उसके पास सारी शक्ति है तो वह सारी मानव जाति को दबा दे।
इसी तरह मिल का विचार था कि किसी भी प्रकार की चर्चा बिना किसी दबाव के होनी चाहिए। मिल को इस प्रकार के परंपरावादी झूठ में विश्वास नहीं था कि ‘सत्य की हमेशा जीत होती है।’ इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं जब सत्य का गला घोंटा गया। अतः उसने बिना चर्चा अथवा तर्क के किसी भी सत्य के पुराने फारमूलों को अपनाने से इंकार कर दिया। उसका मानना था कि सत्य को सशक्त करने के लिए जरूरी है कि इस पर चर्चा हो, बार-बार चर्चा हो तथा बिना किसी दबाव अथवा डर के चर्चा हो। केवल चुनौती की आग में तपकर ही सत्य उजागर हो सकता है। संक्षेप में, मिल ने विचार की स्वतंत्रता को तीन आधारों पर वैध ठहरायाः
(i) दबाया जाने वाला विचार सही हो सकता है;
(ii) यदि दबाया गया विचार गलत भी है तो वह आंशिक रूप से सही होगा, क्योंकि किसी भी सामाजिक विषय पर जनमत कभी भी एकमत नहीं होता; केवल विरोधी विचारों के परस्पर टकराव से ही सच पैदा होने की संभावना होती है;
(iii) यदि प्रचलित विचार सही भी है तो भी यदि इसे विरोधी विचार से चुनौती नहीं दी जाएगी तो वह धीरे-धीरे एक रूढ़ि का रूप ले लेगा।
जे. एस. मिल पाँचवें विचार ,
व्यापक स्तर पर, मिल के विचारों को नकारात्मक माना जाता है। उसने व्यक्ति के स्वयं-प्रभावी कार्यों पर समाज अथवा राज्य के हस्तक्षेप को गलत माना क्योंकि उसके विचार में सभी प्रकार के बंधन बुरे हैं। व्यक्ति उन कार्यों के लिए समाज के प्रति जिम्मेदार नहीं है जिनका संबंध उसके अपने से है। समाज की भलाई इसी में है कि वह व्यक्ति को आत्मविकास का पूरा अवसर दे। स्वतंत्रता बंधनों के अभाव में है। व्यक्ति के लिए उत्तम यह है कि उसे अपना सुख अपनी मर्जी से ढूँढने के लिए अकेला छोड़ दिया जाए।
मिल ने स्वतंत्रता को व्यक्ति तक सीमित रखा तथा समाज एवं राज्य को स्वतंत्रता का दुश्मन माना। स्वतंत्रता का उद्देश्य व्यक्ति के लिए एक ऐसा क्षेत्र सुरक्षित करना है जिसमें वह बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के कार्य कर सके। हालांकि मिल स्वतंत्रता की धारणा को काफी उच्च धरातल तक ले गया, परंतु उसकी जड़ें व्यक्ति की स्वतंत्रता में ही रहीं।
मूल्यांकन-
स्वतंत्रता की यह धारणा केवल शिक्षित बौद्धिक वर्ग पर ही लागू होती है, बच्चों, युवाओं अथवा पिछड़ी जातियों एवं नस्लों पर नहीं। इसमें कोई शक नहीं है कि वैचारिक स्तर पर व्यक्ति के व्यक्तित्त्व तथा सभ्यता के विकास के लिए मिल विचार तथा अभिव्यक्ति की निरंकुश स्वतंत्रता का समर्थन करता है परंतु व्यावहारिक स्तर पर उसका मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग उस सीमा तक करे जहाँ तक वह दूसरों की स्वतंत्रता में बाधा नहीं बनता।
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