भारत रत्न डॉक्टर भगवान दास का जीवन परिचय - Biography of Bharat Ratna Dr. Bhagwan Das

भारत रत्न डॉक्टर भगवान दास का जीवन परिचय – Biography of Bharat Ratna Dr. Bhagwan Das

 

डॉक्टर भगवान दास (Dr. Bhagwan Das) का जन्म 12 जनवरी 1959 को वाराणसी के एक वैश्य परिवार में हुआ था | आपके पिता माधव दास की गणना बनारस के सम्मानित व्यक्तियों में होती थी | वह बनारस के बड़े प्रभावशाली व्यक्ति थे , उस समय धीरे-धीरे अंग्रेजी और अंग्रेजी पढ़ाई शिक्षा-दीक्षा यहां आप अपने पांव जमाने लगी थी | माधवदास के चार बेटे थे, गोविंद दास, भगवान दास, राम चरण और सीताराम इनमें भगवानदास ही अधिक मेधावी और प्रभावशाली व्यक्ति थे, माधव दास जी ने अपने चारों पुत्रों को उच्च शिक्षा दिलवाई |

डॉक्टर भगवन दस का जन्म 

 

डॉक्टर भगवान दास ने एक ऐसे कुल में जन्म लिया, जो अंग्रेजी राज के समर्थन और उसके विरोध के बीच की कड़ी था| यह ठीक है, कि उस समय उसने ईस्ट इंडिया कंपनी का साथ व्यापारी के रूप में सहयोग दिया था | परंतु भारतीयता को कभी भी ना छोड़ा था, बस बताया परिवार अंग्रेजों के संपर्क में अपने सत्य निष्ठा व्यापार कुशलता और चतुर्थ के कारण आया था| कहते हैं कि किसी समय तक भारत में यातायात के पूर्व साधन भी नहीं थे | भारत भर में इनके व्यापार के 50 के लगभग शाखाएं कार्यरत थी | अध्यान आवास और सूझबूझ का ही काम था, | इनकी व्यापारी संस्था की साखी इतनी थी, कि उनके परिचय को देखकर भुगतान कर दिया जाता था | इनकी हुण्डियां सारे भारत में चलती थी |

 

डॉक्टर भगवन दस के पूर्वज 



डॉक्टर भगवान दास के पूर्वजों में शाह मनोहरदास थे | उन्होंने बहुत नाम और रुपया पैसा कमाया | साथ ही दान आदि पुण्य कार्यों में खर्च भी दिल खोलकर किया करते थे| अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान को दबाने के लिए जो फौज भेजी थी , उसकी पूरी रसद का ठेका इन्हीं के पास था | इससे जो रुपया मिला उन्होंने कोलकाता में सैकड़ों बीघा जमीन खरीदी और उन्हें गांवों की 4 गांव के लिए दान दे दिया, उसमें उनके लिए पानी पीने का तालाब भी बनवाया |

यह बहुत दूर की सोचते थे , और यह भी जानते थे, कि लक्ष्मी का स्वभाव चंचल होता है इसीलिए उन्होंने सोचा कि धन का उपयोग इस रूप में किया जाए कि आने वाली पीढ़ी को भी धन भाव का कभी कष्ट ना हो यह सोचकर उन्होंने कोलकाता में और जगह खरीदी और वहां विशाल कटरा बनवाया यह स्थान बड़ा बाजार में है, उनके परिवार के मुख्य आय का साधन आज भी एक कटरा रही है |

 

डॉक्टर भगवान दास ने दोनों धारणाये 


300 वर्ष पहले या परिवार वाराणसी आया तभी यह परिवार वाराणसी का सभ्य सुसंस्कृत और धनी मानी परिवार माना जाने लगा | वही हमारे देश भारत में यह कहा जाता है , कि लक्ष्मी और सरस्वती का वास अलग-अलग होता है, परंतु यह परिवार तो सदा से ही इस बात का अपवाद रहा है, इसके साथ ही एक आम धारणा यह भी है, कि दार्शनिक लोग बड़े लापरवाह होते हैं, तथा औरतों के साथ कैसे व्यवहार किया जाता है, यह जानते ही नहीं हैं, परंतु डॉक्टर भगवान दास ने दोनों धारणाओं को गलत सिद्ध किया |


वह अपने घर परिवार तथा अन्य आत्मीय जनों के साथ समाज के प्रति सदैव सजग रहते, और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य को पूरी तरह निभाया वह घर का पूरा ध्यान रखते हुए अपनी वेशभूषा और नियमों के प्रति अन्य तक सजग रहें और राष्ट्रीय हित के सामने उन्होंने अपने हित को त्याग दिया वह श्री सरस्वती और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य पालन के लिए सदैव जागरूक रहते थे |

 

डॉक्टर भगवान दास की शिक्षा 


डॉक्टर भगवान दास की बीए तक की शिक्षा वाराणसी में हुई , आप बचपन से ही प्रतिभा के धनी थे| एण्ट्रेन्स परीक्षा 12 वर्ष की आयु में पास की| और उसके बाद वहीं के क्वींस कॉलेज से b.a. अंग्रेजी मनोविज्ञान दर्शनशास्त्र और संस्कृत लेकर पास की m.a. के लिए कोलकाता जाना पड़ा | क्योंकि इलाहाबाद में तब विश्वविद्यालय नहीं था, उन्होंने दर्शनशास्त्र में किया इसके अतिरिक्त उन्हें अन्य भाषाएं तथा अन्य नवीन विषय पढ़ने की रुचि थी | संस्कृत, उर्दू और फारसी के ग्रंथ भी पढ़ते थे |, उनमें आरंभ से ही चिंतन और अध्ययन के प्रति अथाह रुचि थी, इसीलिए 23 वर्ष की आयु में ही साइंस ऑफ पीस तथा साइंस ऑफ इमोशनल नामक ग्रंथों की रचना की |

उस समय उच्च शिक्षा प्राप्त युवकों के लिए अच्छी नौकरी पाना कुछ ही कठिन ना था, और भगवान दास जी के लिए तो और भी सरल था , क्योंकि एक तो उच्च शिक्षा दूसरे प्रभावशाली परिवार परंतु उन्हें सरकारी नौकरी रुचिकर प्रतीत नहीं होती थी | जबकि पिता चाहते थे, कि बेटा किसी उचित सरकारी पद को संभाल लेता | 21 वर्ष की उम्र में ही डॉक्टर भगवान दास उत्तर प्रदेश में तहसीलदार बन गए थे , बाद में वे कलेक्टर और मजिस्ट्रेट भी रहे, लगभग 8 साल इन पदों पर कार्यरत रहे परंतु सन 1897 ई० में पिताजी के देहावसान के बाद सरकारी नौकरी छोड़ दी |

 

सेंट्रल हिंदू कॉलेज की स्थापना की


इस समय देश एक नई जागृति करवट ले रहा था , और श्रीमती एनी बेसेंट ने एक नई चेतना का संचार किया था , पूरा देश उनसे प्रभावित प्रबुद्ध लोग यह अनुभव करने लगे थे , कि देश की संस्कृति भाषा इतिहास के साथ देश की आम जनता में स्वभाव मान स्वाभिमान की भावना भरना जरूरी है, वे इसके लिए सरकार के प्रभाव से मुक्त शिक्षण संस्थाएं खोलना जरूरी समझते थे | डॉक्टर एनी बेसेंट वाराणसी में हिंदू कॉलेज स्थापित करना चाहती थी इस काम में उनका साथ दिया डॉक्टर भगवान दास ने सेंट्रल हिंदू कॉलेज की स्थापना की गई।

 

अंग्रेज सरकार ने इस कॉलेज के लिए आर्थिक अनुदान देने से साफ इनकार कर दिया, क्योंकि इस कॉलेज में धर्म की शिक्षा अनिवार्य थी धन की कमी के कारण कॉलेज को चलाने में कठिनाई होने लगी तो डॉक्टर भगवान दास और उनकी भाई श्री गोविंद दास विभिन्न नगरों के राजा महाराजाओं के पास गए और उनसे दान इकट्ठा करके अपने सपनों को पूरा करके यह धन लेकर धन लिया।  इतना ही नहीं उन्होंने इस कॉलेज में पूरी साहित्य और दर्शनशास्त्र पढ़ाने की जिम्मेदारी भी अपने ऊपर ले ली |

 

उसे पूरी सफलता के साथ निभाया कॉलेज सही ढंग से चलने लगा परंतु जब महामना मदन मोहन मालवीय जी ने बनारस में हिंदू विश्वविद्यालय स्थापित करने की सोची तो डॉक्टर भगवान दास ने उनको सहयोग दिया और बना बना बनाया कॉलेज उससे संबंध करने को तैयार हो गए |


सन् 1921 में गांधी जी ने सरकार से पूर्ण सहयोग का नारा दिया था , उस समय छात्रों ने स्कूल कॉलेज छोड़ दिए थे , परंतु गांधीजी चाहते थे , कि जिन छात्रों ने सरकारी शिक्षण संस्थाओं का बहिष्कार किया है | उनके लिए राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की जाए उस समय वाराणसी में ही काशी विद्यापीठ की स्थापना हुई, और डॉक्टर भगवान दास इसके मुख्य संस्थापकों में से ही नहीं इसके प्रथम कुलपति भी बने भगवान दास जी ने ही लाल बहादुर शास्त्री तथा उनके अन्य साथियों को प्रेरणा दी थी, कि पहले इस संस्था में शिक्षा समाप्त कर ले फिर राजनीति के व्यापक क्षेत्र में कूदे।

 

शास्त्री जी ने ऐसा ही किया उस समय इन उत्साही युवकों का मार्गदर्शन करना बहुत महत्वपूर्ण कार्य था अन्यथा अनेक युवक भटक जाते और आगे चलकर देश के लिए इतने उपयोगी सिद्ध ना होते जैसे व्यवस्था सिद्ध हुए इससे प्रकट होता है, कि वह कांग्रेसी दृष्टिकोण से पूरी तरह सहमत ही नहीं थी | बल्कि उसे क्रियात्मक रूप से देने के लिए प्रयत्नशील भी थे |

 

काशी विद्यापीठ की स्थापना


जब संपूर्ण देश में असहयोग आंदोलन की धूम थी, तो आप भी उस आंदोलन में कूद पड़े और आपको जेल जाना पड़ा | उन दिनों ऐसे शिक्षा केंद्रों की जरूरत थी, जिनके माध्यम से छात्रों के मन में देश हित की भावना पैदा कर की जा सके | इसीलिए काशी में ऐसे ही एक संस्था काशी विद्यापीठ की स्थापना की गई इसके निर्माण कार्य के लिए काशी के निवासी श्री शिव प्रसाद गुप्त ने उन दिनों 11000 रुपए की राशि दान की थी, इस विद्यापीठ में पढ़ाने वालों में डॉ संपूर्णानंद, आचार्य नरेंद्र देव, और आचार्य कृपलानी डॉक्टर भगवान दास जैसी विभूतियां थी |

डॉक्टर भगवान दास के संयत जीवन कर्म निष्ठा और उदारता का छात्रों पर गहरा प्रभाव पड़ा, वे मानवता के पुजारी थे | सभी धर्मों में उनके सम्मान आस्था थी, उनमें राष्ट्रप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी, भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री उनके हिस्से थे आपकी याददाश्त इतनी तेज थी, कि संस्कृत के सैकड़ों श्लोक आपको मोहित याद थे| बाद में आप इस संस्था के प्रधानाचार्य भी हो गए थे |

 

हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति



हिंदी साहित्य से उन्हें गहरा प्यार था, हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग और नगरी प्रचारिणी सभा से उनका काफी निकट था संबंध संबंध था | सन् 1921 ई० में कोलकाता में आयोजित हुए हिंदी साहित्य सम्मेलन के वे सभापति बनाए गए थे| अपने लिखी गई पुस्तकों में आप ” ऐशेन्सियल यूनिटी आफ ऑल रिलिजन्स ” को सबसे पहला स्थान देते थे, इस पुस्तक का हिंदी रूपांतर पंडित सुंदरलाल ने किया था , जिसका नाम है सर्व धर्मों की बुनियादी एकता | इसके अतिरिक्त आपकी दर्शन का प्रयोजन एक पुरुषार्थ नामक पुस्तकें भी उन दिनों बड़ी लोकप्रिय हुई थी |

सन् 1930 ई० में बनारस में हुए एक धार्मिक सम्मेलन में डॉक्टर भगवान दास ने सर्वधर्म समभाव की भावना से प्रेरित होकर एशिया खंड के चिंतन में एकता विषय पर अपना वक्तव्य दिया था , जिसकी प्रशंसा अनेक विद्वानों ने मुक्त कंठ से की थी | सर्वधर्म समभाव और मानव जाति की एकता उनके लिए केवल कथनी ही नहीं बल्कि उनके दैनिक व्यवहार के अंग भी थे |

 

सन् 1931 ई० में जब काशी और कानपुर में सांप्रदायिक दंगा हुआ था, तब भगवान दास का कबीर जैसा पवित्र हृदय फूट-फूटकर रो पड़ा था, सन् 1932 ई० में पूना की यरवदा जेल में गांधी जी ने भगवान दास जी को एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी थी, कि वह सिद्ध करें कि हरिजनों का मंदिर में प्रवेश करना कोई धार्मिक हानि नहीं है, उन्होंने इस जिम्मेदारी का भली भांति निर्वाह किया था |


आपने अपने जीवन काल में अनेक प्रतिष्ठित पदों पर काम किया जब आप बनारस म्युनिसिपल बोर्ड के चेयरमैन थे , तब आपने प्राइमरी में तकलीफ चरखा चलाने की शिक्षा आरंभ की राष्ट्रीयता देशभक्ति और समाज एवं संस्कृति पर अनेक बालों योगी पुस्तके लिखी |


वह समय-समय पर कांग्रेस के आंदोलनों में भाग लेते रहे | सन् 1922 में जब कांग्रेस में म्यूनिसिपल कमेटियों के चुनाव लड़ने का निश्चय किया, तो वाराणसी में कांग्रेस की भारी बहुमत मिला डॉक्टर भगवान दास म्युनिसिपालिटी के अध्यक्ष चुने गए, कांग्रेस द्वारा किसी भी प्रकार के प्रकाशन का यह प्रथम प्रयोग था| वाराणसी में शहर की सफाई तथा अन्य सुधार कार्यों के लिए उन्होंने अनेक यत्न किए हिंदी साहित्य सम्मेलन की तो वह आरंभ से ही सहायता करते रहते थे, और उसके अध्यक्ष भी रहे |1935 में केंद्रीय विधानसभा के लिए भी चुन लिए गए थे, इन बातों से स्पष्ट है, कि वह अपनी ही दुनिया में खोए रहने वाले दार्शनिक ना थे, बल्कि वह जगत के प्रति भी जागरूक थे और उसके प्रति अपने कर्तव्य की पूर्ति भी करते थे |

 

डॉक्टर भगवान दास का अंतिम समय 


डॉक्टर भगवान दास दार्शनिक विद्वान समाजसेवी और चिंतक रहे , परंतु जीवन की छोटी-छोटी बातों के प्रति भी सदा सजग रहे बहुत ही सादगी और मितव्यई व्यक्ति थे | उनका परिधान विशुद्ध भारतीय ढंग का होता था, अपनी लंबी दाढ़ी और विशुद्ध भारतीय वेशभूषा में वह एक महर्षि जैसे प्रतीत होते थे | भव्यता और शालीनता उन्हें घेरे रहती थी, वह कभी भी सामाजिक नैतिक और बौद्धिक स्तर से नहीं गिरे |


वह अंतिम क्षणों तक नियमों का पालन करते रहे व्यवस्था और नियमितता उनके जीवन का मापदंड ही बन गए थे | नियमित व्यायाम के कारण वे कभी बूढ़े प्रतीत नहीं हुए, वह 90 वर्ष की आयु तक जिए |पर सदा युवकों के समान कमर सीधी और मस्तक उन्नत कर के चलते थे |

भगवान दास के जीवन में कोई असंतोष और अभिलाषा ना थी जिससे वह चिंतन रहते इसीलिए वह अपने जीवन के अंतिम वर्षों में व्यस्त सार्वजनिक जीवन से अलग हो गए थे। सारा समय चिंतन मनन और अध्ययन में ही बिताया |

 

डॉक्टर भगवान दास को भारत रत्न की उपाधि 



वे भारतीय दर्शन के प्रखंड पंडित माने जाते थे | मनुस्मृति के आचार्य ही थे।  डॉक्टर राधाकृष्णन और गांधीजी की तरह व सभी धर्मों की बुनियादी एकता में विश्वास रखते थे| विश्व शांति के लिए वह एक आवश्यक समझते थे, कि विश्व व्यवस्था का आधार सभी धर्मों के मूल तत्व ही हो सकते हैं। 

 

परंतु उन्हें कट्टरपंथी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह तो प्राचीन और आभार अर्वाचीन का समन्वय चाहते थे, उनका कहना था, कि हमारे देश में अनेक जातियों और धर्मों के लोग रहते हैं , परंतु इन सभी में विभिन्नता होती हैं।  साथ-साथ जातियों और धर्म एक ही रंग में रंगे हैं, उन सब की स्मृत संस्कृति एक सी है, क्योंकि वह हमारे उस देश की माटी के फूले फले हैं | जिस माटी से मानवता की खुशबू आती है, जहां पर सभी धर्मों का निवास मानवता में है |

उनके विचारों और साहित्यिक सेवाओं से प्रभावित होकर काशी हिंदू विश्वविद्यालय एवं इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने उन्हें क्रम सा डायरेक्टर की मानद उपाधि प्रदान की| उनकी देशभक्ति विद्वता और साहित्य साधना से प्रभावित होकर भारत सरकार ने 1955 ई० में उन्हें ” भारत रत्न ” की उपाधि से विभूषित किया |

लगभग 90 वर्ष की आयु में 18 सितंबर ,1958 को सर्व धर्म समभाव मानव एकता राष्ट्रभक्ति और समन्वय साधना का वह सूर्य अनंत में विलीन हो गया। 

 

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