नारीवाद में सेक्स/जेंडर विमर्श की विवेचना कीजिए

नारीवाद में सेक्स/जेंडर विमर्श की विवेचना कीजिए।



नारीवादी राजनीति का एक प्रमुख योगदान यह है कि यह स्पष्ट हो गया कि ‘सेक्स और जेंडर’ के बीच अंतर है।

शुरू में ‘सेक्स’ (या लिंग) शब्द का उपयोग पुरुषों और महिलाओं में नैतिक अंतर बताने के लिए किया जाता था। इसी तरह ‘जेंडर’ शब्द का उपयोग इस बुनियादी अंतर से संबंधित व्यापक सांस्कृतिक अर्थ को बताने के लिए किया गया। नारीवादी मानवशास्त्रियों, खासतौर पर, मार्गरेट ने यह दिखाया है कि विभिन्न संस्कृतियों में पुरुषत्व और नारीत्व को अलग-अलग तरीके से समझा जाता रहा है। नारीवादियों ने यह तर्क दिया है कि यह जरूरी नहीं कि पुरुषों और महिलाओं की नैतिक संरचना पालन-पोषण के समय से ही पुरुषों और महिलाओं के बीच कुछ खास तरह के अंतरों की नींव डालने की कोशिश की जाती है और उन्हें बरकरार रखा जाता है। बचपन से ही लड़कों और लड़कियों को इस तरह प्रशिक्षित किया जाता है कि उनके बीच व्यवहार, खेलकूद, पहनावे आदि के आधार पर जेंडर आधारित अंतर कायम हो जाए।



जेंडर के आधार पर सामाजिक विभेद के ऊपर परंपरागत रूप से सामाजिक वर्ग जैसी अवधारणा की तुलना में कम ही ध्यान दिया गया। महिलाओं के अल्प-प्रतिनिधित्व का मुद्दा भी लम्बे समय से स्वीकृति ही समझ लिया गया था किन्तु नारीवाद की “दूसरी लहर” (सेकेण्ड वेव) ने इस गलती को सुधारने का बीड़ा उठाया। यद्यपि ‘जेंडर’ एवं ‘सेक्स’ को प्रायः एक ही समझ लिया जाता है एवं एक के स्थान पर दूसरे शब्द का प्रयोग आम बात है तथापि सामाजिक एवं राजनीतिक विज्ञान में इसका अंतर काफी महत्वपूर्ण हो जाता है।

 

इस संदर्भ में देखने पर हम पाते हैं कि जहाँ ‘जेंडर’ शब्द का प्रयोग पुरुषों एवं महिलाओं के सामाजिक एवं सांस्कृतिक विभेद को दर्शाने के लिए होता है, वहीं ‘सेक्स’ पुरुषों एवं महिलाओं की जैविक भिन्नता को दर्शाने के लिए प्रयुक्त होता है। जेंडर वस्तुतः पुरुषत्व एवं स्त्रीत्व के व्यवहार की रुढ़िवादी धारणा पर आधारित होता है। नारीवादी विचारधारा के अंतर्गत पुरुषों एवं महिलाओं के लिए निर्धारित अलग-अलग सामाजिक क्रियाकलापों पर प्रश्न आरोपित किए जाते हैं।

 

संक्षेप में कहें तो लैंगिक समानता की तलाश इस विश्वास को अभिव्यक्त करती है कि लैंगिक भिन्नता का तो सामाजिक क्षेत्र से कुछ लेना-देना है और न ही राजनीतिक क्षेत्र से। जबकि नारीवाद-विरोधी जैविकी को एक नियति मानते हैं तथा सेक्स एवं जेंडर को अलग-अलग बताए जाने का विरोध करते हैं। जो भी हो, 1960 के दशक के जेंडर आधारित असमानता को मिटाने की दिशा में उठाए गए महत्वपूर्ण कदमों के बावजूद भी संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार पूरे विश्व में काम किए गए कुल घंटे में महिलाओं का योगदान 66 प्रतिशत होता है तथा कुल वैश्विक आय का महज 10 प्रतिशत ही वे कमाती हैं और विश्व की कुल सम्पत्ति में उसका हिस्सा केवल 1 प्रतिशत ही है (यू.एन.डी.पी. रिपोर्ट, 2002)1

यही कारण है कि रेडिकल नारीवादी चिंतक जेंडर विभेद को किसी भी सामाजिक विभेद से ज्यादा गहरा एवं राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण मानते हैं।

 

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