Pandit Jawaharlal Nehru Essay in Hindi

पंडित जवाहरलाल नेहरु – 15 अगस्त 1947 से 27 मई 1964 तक

पंडित जवाहरलाल नेहरु देश के पहले प्रधानमंत्री कैसे बने – History of Pandit Jawaharlal Nehru



Pandit Jawaharlal Nehru – जवाहरलाल नेहरु जिनको लोग पंडित चाचा नेहरू जी के नाम से संबोधन करते हैं।  भारत में प्रधानमंत्रियों ने प्रथम स्थान तो रखते ही हैं बल्कि सर्वश्रेष्ठ स्थान भी रखते हैं। इसलिए सर्वाधिक समय तक प्रधानमंत्री के पद को सुशोभित करने वाले भी यही थे। क्योंकि वह स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर अपने निधन काल तक अर्थात  15 अगस्त 1947 से 27 मई 1964 तक प्रायः 17 वर्षों तक निरंतर प्रधानमंत्री रहे
         पंडित नेहरू के ऊंचाई का कोई और प्रधानमंत्री या देश नहीं दे सकता।  नेहरू एक ऐसे विराट राजनीतिक शिखर थे, जिनकी ऊंचाई को स्पष्ट करना ना उनके समकालीन राजनीतिज्ञों  के लिए संभव हुआ, ना उनके बाद के।
    अभी तक तो स्थिति यह है, कि भविष्य में भी नेहरू की ऊंचाई का कोई राजनेता भारत में उत्पन्न होगा इसकी संभावना भी छेड़ है।  उसका विशेष कारण यह है , कि नेहरू जी ऐसी परिस्थितियों की उपज थी, जैसी परिस्थितियां पुनः नहीं बन सकती।
नेहरू के समय स्वतंत्रा संग्राम अपने चरम पर था। महात्मा गांधी इसका नेतृत्व कर रहे थे, उनका साथ देने वाले कुछ और नेता भी थे।  किंतु नेहरू जी उनकी दाई भुजा थे | स्वयं गांधीजी खुलेआम उनकी प्रशंसा करते थे , और उन्हें पुत्र बात मानते थे। महात्मा गांधी एक महान त्यागी महापुरुष होने के फल स्वरुप किसी पद के आकांक्षी बन नहीं थे।  स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात गांधीजी चाहते तो प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बन सकते थे।  किंतु उन्होंने कोई पद ग्रहण  करने  की इच्छा प्रकट नहीं कि। ऐसी स्थिति में गांधी के बाद जो सबसे विराट व्यक्तित्व था वह था पंडित जवाहरलाल नेहरू का। अतः स्वभावतः Pandit Jawaharlal Nehru प्रधानमंत्री के पद पर आसीन हुए।



Pandit Jawaharlal Nehru Ka Jeevan Parichay

      नेहरू अपने समकालीन नेताओं से कई अर्थों में भिन्न और श्रेष्ठ है , चाहे वह पारिवारिक पृष्ठभूमि हो अथवा लिखाई पढ़ाई या लोकप्रियता।  स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ही नेहरू की लोकप्रियता अंतरराष्ट्रीय स्तर की हो चुकी थी।  यह छवि उनके किसी समकालीन नेता की नहीं बनी यह सब उनके परिवारिक पृष्ठभूमि तथा उनकी विद्वता एवं वक्रता के फल स्वरुप था।
  पंडित नेहरू के पिता पंडित मोतीलाल नेहरू स्वयं एक स्वतंत्रता सेनानी तो थे, वह एक बहुत योग्य एवं धनाढ्य वकील भी थे।   इलाहाबाद ने उनसे बड़ा और सम्मान संपन्न कोई और वकील नहीं था।
    इसी मोतीलाल नेहरू के घर उनके एकमात्र पुत्र के रूप  में जवाहरलाल नेहरू 14 नवंबर 1889 (अट्ठारह सौ नवासी) को पैदा हुए बालक जवाहरलाल जन्म के समय ही इतनी सुंदर थे , कि उनका  नाम ही मोतीलाल ने जवाहर रख दिया।  जवाहरलाल का शारीरिक आकर्षण उनके जीवन के अंत तक बना रहा।
     इनकी माता का नाम स्वरूपरानी था। नेहरू परिवार मूलता कश्मीर का था , और उसके नाम के साथ कौल जुड़ता था। औरंगजेब की मृत्यु के बाद फर्रूखसियर दिल्ली का शासक बना तो संस्कृत फारसी के कश्मीरी विद्वान पंडित राज कौल को दीवान बनाकर दिल्ली ले आया।
 उन्हें एक जगह दी गई और रहने के लिए नहर के किनारे बनी एक हवेली तभी से वह कौल नेहरू कहलाए। बाद में कौल शब्द पूरी तरह गायब हो गया रह गया, सिर्फ नेहरू यही राज कॉल जवाहरलाल के प्रथम ज्ञात पुरखे थे।

Pandit Jawaharlal Nehru Essay in Hindi

    Pandit Jawaharlal Nehru का जन्म तो इलाहाबाद में मोतीलाल नेहरू के पैतृक घर में ही हुआ था , पर बाद में उनके पिता ने एक अच्छा सा महल खरीद लिया था।  जिसका नाम आनंद भवन पड़ा बाद में यह आनंद भवन कांग्रेस पार्टी को दान कर दिया गया।  स्वतंत्रता आंदोलन का संचालन एक तरह से इसी भवन से होने लगा और यह आनंद भवन से स्वराज भवन का नाम प्राप्त कर गया।



  मोतीलाल नेहरू ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के लालन-पालन पर बहुत ध्यान दिया। एकमात्र पुत्र होने के कारण भी ऐसा हुआ। यह उक्ति प्रसिद्ध है , भले ही वह अतिशयोक्ति क्यों ना हो कि जवाहरलाल के कपड़े लंदन में सिलते थे और पेरिस में धुलते थे।  बाद में नेहरू का जीवन बहुत सादा हो गया था, पोशाक के रूप में वह चूड़ीदार पजामा शेरवानी और एक अपने तरह की बंडी पहनते, ऐसी बन्डी पहले नहीं चलती थी।  आत:  इसका नाम ही जवाहर बंडी पड़ गया।
महात्मा गांधी ने एक विशेष प्रकार की टोपी  पहननी शुरू की, तो वह गांधी टोपी के नाम से प्रसिद्ध हो गई भले ही गांधीजी ने उसे पहनना छोड़ दिया था। किंतु उस समय अधिकांश लोग ऐसी ही टोपी पहनने लगे थे, जो आज भी कुछ लोग पहनते हैं। जवाहर बंडी जो प्रसिद्ध हुई तो आज भी उसके पहनने वालों की संख्या गांधी टोपी पहनने वालों से अधिक है।
गांधी टोपी जवाहरलाल के लिए एक वरदान ही सिद्ध हुई क्योंकि वे युवावस्था में ही पूरी तरह गंजे हो गए थे।  तो फिर गांधी टोपी जो उन्होंने पहनना आरंभ किया तो देश में घर के बाहर बिना टोपी के उन्हें कहीं नहीं देखा गया।  घर में भी मुलाकात यू के समक्ष हुआ, गांधी टोपी में ही रहते थे।  यही कारण है , कि उनके उपलब्ध सारे चित्रों में भी टोपी पहने ही दिखाई पड़ते हैं।  एकाध चित्र ही ऐसे होंगे जिनमें वह बिना टोपी के और पूरी तरह खल्वाट दिखते हैं, यही कारण है कि कम ही लोगों को पता है, कि उनका सिर केस विहीन था।

पंडित  जवाहरलाल नेहरू की आरंभिक जीवन – Early life of Pandit Jawaharlal Nehru

 

पंडित जवाहरलाल नेहरू की आरंभिक जीवन पढ़ाई इलाहाबाद में ही हुई। किंतु इनकी उच्च शिक्षा दीक्षा इंग्लैंड के हैरो और कैंब्रिज विश्वविद्यालयों में हुई।  नेहरू इंग्लैंड में प्रायः 7 वर्षों तक रहे यहां बैरिस्टर तक उन्होंने शिक्षा प्राप्त की 1912 में इंग्लैंड से वापस इलाहाबाद लौटे थे।  और वहां के उच्च न्यायालय में उन्होंने वकालत आरंभ कर दी।



उन्होंने कोई 7 वर्षों तक वकालत करने के पश्चात तत्कालीन भारतीय राजनीति में 1919 ई० में प्रवेश किया।  यह कहे कि उन्होंने महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे स्वतंत्रा आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेना आरंभ किया।  वह स्वतंत्र आंदोलन कांग्रेस पार्टी द्वारा चलाया जा रहा था।  और उस समय एक तरह से यह पार्टी देश की एकमात्र प्रमुख पार्टी थी।  विशेषकर प्रायः सभी हिंदुओं और कुछ अल्पसंख्यकों की।

 

 

Pandit Jawaharlal Nehru का विवाह 

 

 

नेहरू जी की शादी 1916 ई० में दिल्ली के एक व्यवसाई जवाहरमल की बेटी कमला कौल से संपन्न हुई थी | वह शादी पारंपरिक रूप से हुई और लड़की भी जवाहरलाल के पिता  पंडित मोतीलाल नेहरू ने स्वयं पसंद की थी।  यह विवाह इसीलिए भी उल्लेखनीय हुआ की बारात कोई 10 दिनों तक दिल्ली में ठहरी | यह सब जवाहर लाल के श्वसुर जवाहर मल की संपन्नता और अपनी प्रीत संतान कमला के प्रति उनके अपार स्नेह का द्योतक था।

 

कमला कौल अब कमला नेहरू बन गई।  जवाहरलाल के विदेश से लौटते ही उनके पिता ने आनंद भवन में एक और मंजिल निर्मित करवा दी थी।  इसी पहली मंजिल में अपनी पत्नी कमला नेहरू के साथ व निवास करने लगे।



नेहरू को एक ही संतान प्राप्त हुई वह भी विवाह के प्राया 21 महीनों पश्चात। उसका नाम पड़ा इंदिरा प्रियदर्शिनी।  दादी स्वरूपरानी जो पोते की आशा लगाए बैठी थी।  उनको पोती होने की बात सुनकर झटका अवश्य लगा, किंतु मोतीलाल नेहरु और जवाहरलाल को इस सुंदर संतान को देख कर बहुत प्रसन्नता हुई।  यही इंदिरा प्रियदर्शिनी आगे चलकर फिरोज गांधी से विवाह होने के पश्चात इंदिरा गांधी बन गई।

 

          जवाहरलाल नेहरू के कांग्रेस पार्टी में आने से स्वतंत्रता आंदोलन ने और जोर पकड़ा।

 

 

वह महात्मा गांधी के प्रिय ही नहीं थे, अपितु उन्होंने गांधी के व्यक्तित्व से प्रेरणा प्राप्त कर अपने को गांधी के अनुकूल ढालने में सफलता भी प्राप्त किए।  उन्होंने आनंद भवन में भले ही अत्यंत सुख सुविधा पूर्ण जीवन व्यतीत किया हो किंतु आगे चलकर उनकी जीवनशैली सर्वथा परिवर्तित हो गयी।

 

एक विदेश में पढ़े लिखे नौजवान को अपने साथ पाकर महात्मा गांधी का मनोबल भी बहुत बड़ा और भारतीय स्वतंत्रा आंदोलन में एक तरह से गांधी और नेहरू के सम्मिलित नेतृत्व में और जोर पकड़ लिया।  जब पृथक बात है, कि देश में गांधी अब भी सबसे अधिक भीड़ खींचने वाले नेता थे  . गुजराती होते हुए भी महात्मा गांधी सरल और शुद्ध हिंदी वह भी आम व्यक्ति की हिंदी बोलते थे।  उनकी हिंदी में उर्दू के अल्फ़ाज़ होने के कारण उन्हें वह हिंदुस्तानी कहते थे।  आमजन से उन्होंने पूरी तरह अपना सामान जैसे बैठा लिया था।  क्योंकि वह उन्हीं के भाषा बोलते थे , और उनसे भी सादा पोशाक पहनते थे। अतः उनका नाम सुनते ही हजारों कभी-कभी लाखों की भीड़ उमड़ पड़ती थी।



 

नेहरू के शिक्षा दीक्षा विदेश में हुई

 

नेहरू के शिक्षा दीक्षा विदेश में हुई जिसके फलस्वरूप हिंदी से उनका संपर्क ना के बराबर रहा।  नेहरू के अंग्रेजी तो उस समय के सभी नेताओं जिसमें महात्मा गांधी के भी सम्मिलित है, इससे अच्छी थी।  किंतु अंत तक वह शुद्ध हिंदी अथवा हिंदुस्तानी नहीं बोल सके।  उनके हिंदी भाषण जो तो काफी लंबे होते थे, जिनमें सूचनाओं की भरमार रहती थी।  किंतु उनकी भाषा में अशुद्धियां भी कम नहीं होती थी, वह ऐसी दुनिया के बदले, ऐसा दुनिया और अच्छे संसार के बदले, अच्छी संसार बोल जाते थे।

 

        पंडित जवाहरलाल नेहरु की और बातें तो ठीक लेकिन गांधी के विपरीत उन्हें क्रोध बहुत जल्दी आता था |.किंतु वह इतनी जल्दी जल्दी आता था, उतनी ही जल्दी समाप्त भी हो जाता था।

राजनीति में आने पर जवाहरलाल नेहरू ने अपने को जन नेता बनाने की तैयारी आरंभ कर दी।  वह लोगों के बीच गए उत्तर प्रदेश जो उस समय खासा बड़ा बड़ा प्रदेश था, वहाँ  उन्होंने पर्याप्त यात्रा के लोगों के दुख दर्द को समीप से देखा समझा। ग्रामीण किसानों और मजदूरों की दयनीय स्थिति से वह बहुत प्रभावित हुए।  गांव की शिक्षा पूर्ण जिंदगी और पिछड़ेपन से उनका गहरा परिचय हुआ।

 

दूसरे शब्दों में देश की आत्मा से उनका आमना-सामना अपनी गहन यात्राओं के फल स्वरुप हो सका, गांव में अभी सड़कों का अभाव है।  उस समय तो स्थिति और दयनीय थी।   नेहरू ने विलायत में रहने के कारण किसी गांव को अब तक देखा भी नहीं था, कहना उचित होगा कि यातायात के समुचित प्रबंध की अनुपस्थिति में नेहरू को पर्याप्त कष्ट उठाकर अपनी यात्राएं पूरी करनी पड़ी।

 

जवाहरलाल नेहरू के स्वतंत्रता आंदोलन में प्रवेश करते ही उसका स्वरूप बदल गया पहले जहां मात्र औपनिवेशिक की स्वराज पर बल था , वहीं अब पूर्ण स्वराज को कांग्रेस ने अपना लक्ष्य बनाया।  उनके पिता पंडित मोतीलाल नेहरू  ने स्वयं एक सर्वदलीय सम्मेलन का स्थापित किया था।  जिसमें औपनिवेशिक स्वराज्य के प्राप्ति के प्रस्ताव को पारित किया गया था।  पंडित नेहरू ने श्रीनिवास अयंगर और सुभाष चंद्र बोस को अपने साथ मिलाकर औपनिवेशिक स्वराज की अवधारणा का विरोध किया।  और उसके स्थान पर पूर्ण स्वराज की प्राप्ति पर बल दिया।



महात्मा गांधी के वरद हस्त के फलस्वरूप वह अखिल भारतीय कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन के सभापति चुने गए और 31 दिसंबर 1929 की अर्धरात्रि को उनकी अध्यक्षता में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पारित हो गया।  कांग्रेस पार्टी के सभापति का पद उन दिनों बहुत महत्वपूर्ण था।  और उस पर आसीन व्यक्ति अपने ढंग से पार्टी के पदाधिकारियों और आम सदस्यों को प्रभावित कर सकता था।  पार्टी अथवा देश के हित में नीति निर्धारण  में उसका एक तरह से पूर्ण प्रभाव होता था क्योंकि किसी अन्य सफल पार्टी के अभाव में कांग्रेस पार्टी और भारत देश एक दूसरे से पराए हो गए थे।

 

पंडित नेहरू पुनः 1936-37 तथा 46 में कांग्रेस पार्टी के सभापति चयनित हुए।  पंडित जवाहरलाल नेहरु अब तत्कालीन गोरे शासकों की आंखों का कांटा बन चुके थे।  महात्मा गांधी के पश्चात उन्हें जिससे सर्वाधिक भय था, वह जवाहरलाल ही थे।  1942 में कांग्रेस पार्टी ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आंदोलन का किया।  आंदोलन उग्र हो उठा और स्थान स्थान पर टेलीग्राफ के तार काटे गए रेलवे की पटरियां उखाड़ गई तथा सरकारी इमारतों को क्षति पहुंचाई गई।  कुरूद्ध अंग्रेजी सरकार ने स्वतंत्रता सेनानियों को बंदी बनाकर कार घरों में बंद करना आरंभ किया।  कई स्थान पर लाठीचार्ज हुए, और गोलियां चली जिससे कुछ लोग शहीद हो गए, और कुछ अपंग।

       पंडित नेहरू को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिए गए , प्रायः 3 वर्षों तक कारदार में रहने के पश्चात वह मुक्त हुए |

 

         Pandi Jawaharlal Nehru का लेखन परिचय

 

पंडित जवाहरलाल नेहरु एक बहुत अच्छे लेखक थे, अंग्रेजी में उनके प्रकाशित पुस्तकों की सूची नीचे दी जाएगी , यह यह बताना आवश्यक है, कि पंडित नेहरू ने अपने जेल जीवन का अच्छा उपयोग किया। उनके प्रायः  सारे कृतियां जेलों में ही लिखी गई । उन्होंने जेल से अपनी पुत्री को नियमित रूप से लंबे पत्र लिखने आरंभ किये । जिनके माध्यम से उन्होंने उसे अपने रूप में शिक्षित करने का प्रयास किया । बाद में यह पत्र पुस्तक मे प्रकाशित हुए , जिसका नाम पड़ा, फादर लेटर टू हिज़ डॉटर ।  हिंदी में इसका अनुवाद प्रेमचंद्र ने पिता के पत्र पुत्री के नाम से किया।|

 

इस पुस्तक के अलावा पंडित जवाहरलाल नेहरू की प्रसिद्ध पुस्तकें हैं

 

  • ऑटो बायोग्राफी ( या पुस्तक 1936 में लंदन के एक प्रसिद्ध प्रकाशक के यहां से प्रकाशित हुई थी )
  • क्लिप्स एज ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री (  यह पुस्तक 1939 में लंदन के ही दूसरे प्रकाशक के यहां से प्रकाशित हुई या पुस्तक उनके पत्रों पर ही आधारित थी )
  • द डिस्कवरी ऑफ इंडिया तथा ए बंच आफ ओल्ड लेटर्स (  पूजा पुस्तक 1946 में कोलकाता के सिग्नेट प्रेस से प्रकाशित हुई थी )

 

 

डिस्कवरी ऑफ इंडिया उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति मानी जाती है, भारत के एक तरह से इतिहास के रूप में प्रस्तुत इस पुस्तक की लोकप्रियता इसकी उत्कृष्ट भाषा के फल स्वरुप विदेशों में हुई , कई भाषाओं में इसका अनुवाद भी हुआ, इसके आंसर स्कूलों और कॉलेजों के पाठ्यक्रमों में भी रखे गए।


उपर्युक्त पुस्तकों के अलावा नेहरू जी की अन्य पुस्तकें हैं –   इंडिपेंडेंस एंड आफ्टर सोवियत रशा |

 

इनके भाषणों के भी संग्रह प्रकाशित हुए हैं, इस संग्रह का नाम है –  इंपॉर्टेंट  स्पीच ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू (Important Speech of Jawaharlal Nehru) यह संग्रह पांच खंडों में प्रकाशित हुआ है, इसके अतिरिक्त मुख्यमंत्रियों को जो उन्होंने पत्र लिखे उनके संग्रह का नाम है , लेटेस्ट चीफ मिनिस्टर्स यह संग्रह भी पांच खंडों में प्रकाशित है |

 

 Pandit Jawaharlal Nehru ka जेल जीवन

 

 

ऊपर जवाहरलाल नेहरू के 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में कूद करने की बात लिखी गई है, लेकिन इसके पूर्व भी उनकी गिरफ्तारियां हुई थी।

 

मई 1930 में उन्हें 6 महीने की जेल हुई अक्टूबर 1930 में वह जेल से छूटे ही थे, कि पुनः गिरफ्तार कर लिए गए।  यह क्रम चलता रहा और एक सजा काटकर छूटते ही उन्हें फिर किसी बहाने कैद कर लिया जाता।  1933 तक प्रायः 4 वर्षों में अधिकांश अवधि तक जेल में ही रहे।

 

1931 में उनकी पत्नी कमला नेहरू भी गिरफ्तार कर ली गई।  पत्नी के अलावा पिता पंडित मोतीलाल नेहरु भी  1930 में गिरफ्तार हुए थे।  पिता पुत्र दोनों इलाहाबाद के नैनी सेंट्रल जेल में रहे।  मोतीलाल जी का स्वास्थ्य प्रतिकूल रूप से इस जेल जीवन के कारण प्रभावित होने लगा। उन्हें श्वास की बीमारी ने आ घेरा उनकी दशा बिगड़ी तो सरकार ने विवश होकर उन्हें 11 दिसंबर 1930 को जेल से छोड़ दिया। इसके पश्चात मोतीलाल नेहरू बहुत दिनों तक जीवित नहीं रह सके।

 

उनके चिकित्सा विशेषज्ञ डॉक्टरों से कराई जाती रही किंतु रोग घटने के बजाय बढ़ता ही गया। 1931 कि 6 फरवरी को उनका देहांत हो गया पंडित जवाहरलाल नेहरू के सिर के ऊपर से पिता का हाथ जाता रहा। पिता और पत्नी के अलावा पुत्री इंदिरा गांधी को भी उसके पति फिरोज गांधी के साथ जेल की हवा खानी पड़ी। यह 1942 की बात है पहले लाठीचार्ज में इंदिरा घायल हुई थी।  फिर उसे नैनी की जेल में पति फिरोज गांधी के साथ बंद कर दिया गया। यहां इंदिरा के विवाह के संबंध में कुछ लिखना आवश्यक प्रतीत होता है ||

 

 

   जवाहरलाल नेहरू की पुत्री इंदिरा का विवाह

 




इंदिरा को पिता पंडित नेहरू ने लंदन में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में भर्ती कराया था। वहीं पर इंदिरा के मुलाकात फिरोज गांधी से हुई। फिरोज गांधी के गांधी सिरसा के कारण महात्मा गांधी से कोई संबंध जोड़ने की आवश्यकता नहीं फिरोज पारसी थे। और पारसी भी अपने नाम के आगे गांधी लगाते हैं। फिरोज गांधी से नेहरु की पुत्री इंदिरा की घनिष्ठता बढ़ते बढ़ते प्रेम में परिवर्तित हो गई।

 

दोनों ने आपस में विवाह करने का निर्णय ले लिया। पंडित नेहरू से इंद्र ने जब वह देहरादून की जेल में थे फिरोज ने अपना विवाह करने के बात उठाई। पंडित जवाहरलाल नेहरू अपनी विदेशी शिक्षा दीक्षा के पश्चात भी ऐसे मामलों में बहुत सुधार नहीं थे। पुत्री के इस प्रस्ताव से नेहरू को अंतरिक चोट पहुंची।उन्होंने बेटी को बहुत समझाना चाहते तो इंदिरा एक दृढ़ निश्चय तथा कुछ हद तक जिद्दी लड़की थी अन्यथा नेहरू ने दुखी मन से निर्णय बेटी इंदिरा पर ही छोड़ दिया।

 

इंद्ररा तो अपना निर्णय ले चुकी थी, उसे समझाने के लिए माता कमला नेहरू भी नहीं थी 1936 में 28 फरवरी को स्विट्जरलैंड में उनका देहांत हो गया था।

 

 

वसुधा माता कमला नेहरू की बीमारी के फल स्वरुप ही फिरोज और इंदिरा में अधिक घनिष्ठा बनती थी। रुग्ण मां के साथ उनके इलाज के लिए अपने एक संबंधी डॉक्टर मदन अटल के साथ व जर्मनी में थी। फिर उसको जब पता लगा कि कमला नेहरू चिकित्सा हेतु जर्मनी आई हुई है , तो वह भी उनकी सेवा के लिए वहां पहुंच गए।  इंदिरा को फिरोज के आ जाने में मां के सेवा सुश्रुषा में काफी मदद मिली।  इसके फल स्वरुप फिरोज गांधी के प्रति इंदिरा के मन में कृतज्ञता और प्रेम दोनों का भाव जमा।

 

 

पंडित जवाहरलाल नेहरू (Pandit Jawaharlal Nehru) ने अंततः इंदिरा के दृढ़ निश्चय के समक्ष अपनी पराजय स्वीकार कर ली। और फिरोज गांधी के साथ उनकी शादी में सहमत हो गए।

 

 

विवाह के पक्ष में महात्मा गांधी भी नहीं थे पता नहीं क्यों वह इस विवाह को इंदिरा के लिए कल्याणकारी नहीं मानते थे।  उन्हें शायद भविष्य का आभास हो गया था, क्योंकि अंतत आया शादी टूट कर रही।



 

जो हो 26 मार्च 1942 हिंदू रीति के अनुसार इंदिरा और फिरोज की शादी संपन्न हो गई गांधी के इंगित करने पर इस विवाह को अत्यंत मामूली ढंग से रचा गया, और इलाहाबाद के कुछ आत्मीय लोगों को छोड़कर और किसी को इस अवसर पर आमंत्रित नहीं किया गया।

 

 

प्रधानमंत्री पंडित नेहरू निबंध – Pandit Jawaharlal Nehru Essay in Hindi

 

 

सन 1946 में अंग्रेजों ने भारत में अंतरिम सरकार बनाने की अनुमति प्रदान कर दी थी, वसुधा द्वितीय विश्वयुद्ध जो 1945 में समाप्त हुआ, के दौरान ही ब्रिटिश सरकार ने प्रायः निर्णय ले लिया था , कि भारत को बहुत दिनों तक अपने आधी नहीं रखा जा सकता। अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री का पद पंडित नेहरू ने ही संभाला। 

1947 के 15 अगस्त को भारत पूर्ण रूप से स्वतंत्र हुआ।  किंतु इसके पूर्व और पश्चात बहुत कुछ घटा सत्ता हस्तांतरण के लिए इंग्लैंड से गवर्नर जनरल के रूप में लॉर्ड माउंटबेटन को भारत भेजा गया था।  अंग्रेज भारत को विभाजित करके ही उसे स्वतंत्र घोषित करना चाहते थे।

 

 

लॉर्ड माउंटबेटन अंग्रेजों की इस चाल को मंजिल तक पहुंचाने का प्रयास कर रहे थे। इस समय तक मुस्लिम लीग नामक पार्टी अल्पसंख्यकों के अर्थात मुसलमानों की इकलौती और मजबूत पार्टी बन चुकी थी।   इसके नेता थे, मोहम्मद अली जिन्ना।  पंडित जवाहरलाल नेहरु (Pandit Jawaharlal Nehru) की तरह जिन्ना ने भी विदेश में पढ़ाई की थी। वैल्सट्री की डिग्री ली थी। उनका रहन-सहन और पोशाक सब कुछ विलायती था।

 

देश के विभाजन के बाद मुस्लिम लीग ने जिन्ना के नेतृत्व ग्रहण करते ही उठाई जिन्ना महत्वाकांक्षी थे। और अपने को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते थे पर उन्हें यह भी पता था कि हिंदू बहुत देश में उनका प्रधानमंत्री बनना असंभव था।  अतः देश को बांट कर पाकिस्तान नामक एक अलग राष्ट्र बनाना चाहते थ।  माउंटबेटन ने जिन्ना की महत्वाकांक्षी रूबी आपको पूरे हवा दी और मुस्लिम लीग पाकिस्तान की मांग पर अड़ गई।

 

जवाहरलाल नेहरु (Jawaharlal nehru) बी माउंटबेटन के बहुत समीप थे उनकी माउंटबेटन के साथ-साथ उनकी पत्नी और पुत्री से भी घनिष्ठता थी यहां शीघ्र अतिशीघ्र स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अच्छा था , किंतु माउंटबेटन ने जब इस स्थिति का लाभ उठाते हुए जवाहरलाल नेहरू (Pandit Jawaharlal Nehru) को देश के बंटवारे के लिए राजी कर लिया नेहरू तथा सरदार वल्लभभाई पटेल एवं कांग्रेस के अन्य नेता पहले देश के विभाजन के लिए प्रस्तुत नहीं थे | परंतु जवाहरलाल (Pandit Jawaharlal Nehru) के विभाजन हेतु सहमत हो जाने के पश्चात किसी के पास कोई चारा नहीं रहा एक भारत एक बात भी थी कि जवाहरलाल सहित सभी नेता संघर्ष करते-करते थक गए थे | जवाहरलाल की उम्र 58 वर्ष की होने की को आई थी, सभी नेता बड़े हो रहे थे और लंबे संघर्ष के पश्चात प्रयास अभी को सत्ता सुख की लालसा थी सिटी में सभी विभाजन की कीमत पर भी आजादी लेने को आतुर हो गए थे |

 

 

महात्मा गांधी विभाजन के पक्षधर नहीं थे , उन्होंने कांग्रेस नेताओं को समझने का बहुत प्रयास किया किंतु कोई भी उनसे सहमत नहीं हुआ दुर्भाग्यवश स्वतंत्र आंदोलन में जिस गांधी की इतनी महत्वपूर्ण भूमिका थी वही स्वतंत्रता के प्रातः बेला में निष्पक्ष भावी हो गए थे नेताओं की महत्वाकांक्षी ने उन्हें भारतीय राजनीति में हाशिए पर ला दिया था |

 

 

गांधी जब अपने नेताओं को समझने समझाने में असफल रहे तो उन्होंने लॉर्ड माउंटबेटन से अकेले ही मिलने का निर्णय लिया माउंटबेटन ने उनसे संघर्ष मिलने की अनधिकृत दी दोनों में सौहार्दपूर्ण वातावरण में वार्तालाप हुआ महात्मा गांधी ने देश का विभाजन नहीं करने के लिए माउंटबेटन से अनुरोध किया  |चालाक बेटे ने हां हूं करके महात्मा गांधी को विदा कर दिया | छल कपट रहित गांधी ने समझा कि माउंटबेटन उनके अनुरोध को स्वीकार कर चुका है, और देश विभाजन के संकट से बच जाएगा |

 

 

माउंटबेटन जा समझ चुका था, कि गांधी भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण नहीं रह गए हैं, जिन्ना और जवाहर के अनुकूल होने के कारण उसने विभाजन के साथ 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र प्रदान करने की घोषणा कर दी |



जैसा कि पूर्व में लिखा गया है , कि यह विभाजन जिन्ना की देन थी यदि जिन्ना अंग्रेजों के अर्थात माउंटबेटन के जाल में नहीं फंसते तो या विभाजन नहीं होता गांधी ने जिन्ना से भी प्रार्थना की थी, कि वह अपनी खतरनाक जीत को छोड़ दें , किंतु जिन्ना को जवाहरलाल का भरोसा था | अतः जिन्ना ने गांधी की बातों पर बहुत ध्यान नहीं दिया महात्मा गांधी ने एक बार यहां तक कहा था कि वह जिन्ना को पूरे देश का प्रधानमंत्री बनवा सकते हैं | अतः विभाजन की कोई आवश्यकता नहीं और उसके बिना भी जीना की महत्वाकांक्षा बेहतर रूप में पूरी हो सकती है , लेकिन जिन्ना को पता था कि हिंदू बहुल देश में विशेषकर जब जवाहरलाल के समान कद्दावर नेता उपलब्ध था , जिन्ना का प्रधानमंत्री बनना कठिन क्या असंभव था |

 

 

काश महात्मा गांधी अथवा भारत के किसी भी नेता को पता होता कि जिन्ना तपेदिक की असाध्य बीमारी से ग्रस्त थे, तो वे भारत की स्वतंत्रता को कुछ दिनों के लिए टाल जाते।  जिससे देश का विभाजन रुक जाता बंटवारे के कुछ ही महीनों बाद अंततः उसी बीमारी ने उन्हें मृत्यु के मुख में धकेल दिया।

 

 

15 अगस्त 1947 को अर्थात 14 अगस्त की आधी रात के 1:00 से 2 मिनट बाद भारत स्वतंत्र घोषित हुआ इस घोषणा के कुछ पूर्व ही जवाहरलाल ने भी संविधान सभा को बड़ी अच्छी अंग्रेजी में संबोधित किया था उसके पहले वाक्य में ही आता है, ट्राईस्ट विद डेस्टिनी।  भाषण के कुछ अंशों का अनुवाद नीचे हिंदी में दिया जा रहा है।

 

 

Jawaharlal Nehru Speech in Hindi

 

 

पंडित नेहरू का  भाषण कुछ इस :-     सालों पूर्ण नियति के साथ हमने एक करार किया था, और अब वह काल आ गया है।  जब हम अपनी प्रतिज्ञा पूरी करेंगे आधी रात ठीक 12:00 के घंटे के साथ जब संसार सोया रहेगा भारत जीवन और स्वतंत्रता के लिए जागेगा।  कभी ऐसे क्षण भी आते हैं, यदि पूरे इतिहास में बहुत कम  बार ऐसे पल आते हैं , जब हम एक पुराने युग से नए में चरण रखते हैं।

 

जब एक युग का अंत हो जाता है, और एक राष्ट्र की दीर्घकाल से सोई  हुई आत्मा अभिव्यक्ति प्रदान करती है। इस शुभ अवसर पर भारत उसके लोग और पूरी मानवता की सेवा में समर्पित होने की शपथ हम ले। आज हम जिस उपलब्धि पर प्रसन्नता व्यक्त कर रहे हैं , वह मात्र एक कदम है।  मात्र एक और सर की प्राप्ति भर है,  जो हमें और भी महान जो और उपलब्धियों को प्राप्त कर आएगा। आने वाला समय कोई आरामदायक नहीं अपितु निरंतर संघर्ष का होगा, जिससे हम उस रोड को पूर्ण कर सकेंगे जिसे हमने बार-बार दोहराया है।

 

पहले ही कहा गया है, कि नेहरू के अंग्रेजी बहुत अच्छी थी कितने अच्छे पढ़े-लिखे अंग्रेजों की अंग्रेजी से भी यदि किसी अंग्रेज प्रधानमंत्री से पंडित नेहरू की तुलना की जा सकती है।  उन्होंने  अंग्रेजी में कई पुस्तकें लिखी हैं, उसकी आत्मकथा सर्वाधिक चर्चित है |

 

सचमुच यह सच था  स्वतंत्र भारत के समक्ष कई समस्याएं मुंह बाए खड़ी थी।  सदियों से गुलाम और शोषित रहा देश पूरी तरह जर्जर हो गया था।  आर्थिक स्थिति तो अत्यंत दयनीय थी अकाल और सूखे देश के भिन्न-भिन्न भागों में पढ़ते ही रहते थे। गरीबी के कारण देश की अधिकांश जनता भूखी और नंगी थी।  सिंचाई की समुचित व्यवस्था के अभाव में अंतर उत्पादन 40 करोड जनता के लिए पर्याप्त नहीं था।

 

बिजली व्यवस्था तो नाम मात्र की थी। कुटीर उद्योग जो मुख्यतः वस्त्र निर्माण से संबंधित थे। अंग्रेजों की नीति के कारण सभी समाप्त हो गए थे, जहां उत्पादित रोई अब इंग्लैंड के मैनचेस्टर के वस्त्र कारखानों के लिए कच्चे माल का काम करती थी। भारत-इंग्लैंड का बाजार मात्र बनकर रह गया था।  वह राजनैतिक रूप से तो स्वतंत्र हो गया था किंतु आर्थिक  स्वतंत्र अथवा निर्भरता अभी कोसों दूर थी।



सर्वशिक्षा का बोलबाला था भारत की 80% आबादी गांवों में बसती थी। या एक  ग्राम प्रधान देश है, किंतु गांव तक शिक्षा का प्रकाश फैलाने का कोई सार्थक प्रयास कभी भी विदेशी शासन ने नहीं किया था। अधिकांश आबादी अशिक्षित ही नहीं निरीक्षण थी गांव की महिलाओं में क्या निरक्षरता प्रायः शत प्रतिशत थी।

 

हैजा मलेरिया चेचक प्लेग  के समान बीमारियां महामारी ओं की तरफ फैलती रहती थी। चिकित्सा की सुविधा गांव में दूर-दूर तक कहीं नहीं थी कस्बों और छोटे शहरों की स्थिति भी यही थी। गरीबी कुपोषण और बीमारी के फल स्वरुप भारतीयों की औसत आयु मात्र 42 वर्ष थी। प्रश्नों के समुचित सुविधा के अभाव में जन्म लेते ही  शिशु मृत्यु के शिकार हो जाते थे , अर्थात बच्चों की मृत्यु दर भयानक भयानक थी।

 

स्वतंत्र भारत को इन सभी समस्याओं का समाधान करना था।  पंडित नेहरू ने गलत नहीं कहा था कि सतत संघर्ष का समय था, भविष्य की राह बहुत आसान नहीं थी।  स्वतंत्रता आंदोलन के समय इन्हीं समस्याओं के उन्मूलन का आश्वासन दिया गया था जिसे पूर्ण करना  था।

 

 

 राष्ट्र के एकीकरण समस्या

 

 

अभी सर्वाधिक ज्वलंत समस्या राष्ट्र के एकीकरण की थी। देश में कई रिश्ते अथवा रजवाड़े स्वतंत्र अस्तित्व रखते थे छोटी-बड़ी ऐसी 56 रियासतें थी।  जिनका भारत में विलय नहीं होता तो भारत की स्वतंत्रता व्यर्थ होती। स्वतंत्र भारत के मानचित्र पर जूतों के रूप में यत्र तत्र खड़े यह रजवाड़े इसके रूप को विद्रूप कर रहे थे।  सर्वप्रथम आवश्यकता इन रियासतों को समाप्त करने की थी। अन्यथा देश का सुदृढ़ीकरण नहीं हो पाता। सौभाग्य बस नेहरू को गृहमंत्री के रूप में सरदार वल्लभभाई पटेल ने सदस्य अनुभवी एवं सदस्य इच्छाशक्ति से पूर्व तथा कुशल एवं इमानदार प्रशासक उपलब्ध था। पटेल को लौह पुरुष की संज्ञा मिली थी।

 

 

नेहरू और पटेल में कुछ मामलों में मतभेद अवश्य था , किंतु कुछ मामलों में पूरी तरह चाहते थे कि भारत के एकीकरण के लिए इन रियासतों  को इस बात के लिए बाध्य किया जाए कि वे अपना विलय यथाशीघ्र कर ले। अंतरिम सरकार के दौरान ही सरदार पटेल ने इन रियासतों को जो  भारत के अंदर पढ़ते थे। भारतीय संघ में विलय के लिए दबाव डाला था।  स्वतंत्रता की प्राप्ति का समय आते-आते अधिकांश रजवाड़ों ने विलय स्वीकार कर लिया था।  मात्र तीन रियासते रह गई थी | जूनागढ़, हैदराबाद तथा जम्मू और कश्मीर 1948 के अंत तक इन तीनों को भी भारतीय संघ में मिला लिया गया।

 

 

जूनागढ़ और हैदराबाद में सैनिक कार्यवाही करनी पड़ी, कश्मीर के राजा हरी सिंह ने उस समय विलय स्वीकार किया जब पठान  ने पाकिस्तानी सैनिक अधिकारियों के नेतृत्व में कश्मीर पर धावा बोल दिया।  और उसकी राजधानी श्रीनगर की तरफ बढ़ने लगी नेहरू की यह नीति थी कि राज्य की जनता अगर भारत में विलय के लिए प्रस्तुत हो तभी किसी रियासत रियासत काबिले कराया जाए। राजा हरि सिंह ने भारत के सैनिक सहायता मांगी थी, क्योंकि उनके सैनिक इस आक्रमण को निरस्त करने में अक्षम थे। उस समय गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन थी थे उन्होंने नेहरू को परामर्श दिया कि अंतरराष्ट्रीय कानून के अंतर्गत भारत में कश्मीर का विधिवत विलय हो जाए तभी वहां सैनिक सहायता दी जा सकती है।



विवश होकर महाराजा हरि सिंह ने विलय स्वीकार किया। तब वहां हवाई जहाज से सेनाएं भेजी गई।  महात्मा गांधी ने भी जवाहरलाल नेहरू को सलाह दी कि यह उचित है, कि आक्रमणकारियों को बाहर कर दिया जाए। प्रायः 100 हवाई जहाजों में भरकर सैनिक और हथियार श्रीनगर भेजे गए भारतीय सैनिकों ने इनका बिल्लियों और पाकिस्तानी सैनिकों को बाहर खदेड़ दिया।

 

 

परंतु कश्मीर के 1 भाग पर अभी भारत का निरंतर से ही था, कि संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद के एक प्रस्ताव के फल स्वरूप 31 दिसंबर 1948 को भारत और पाकिस्तान में युद्ध विराम स्वीकार कर लिया।  जिसके फलस्वरूप कश्मीर का एक अच्छा खासा भाग पाकिस्तान के पास रह गया, जिसके लिए विवाद अब भी बना हुआ है।  इसमें नेहरू की कोई गलती नहीं है, संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा पर रिषद के प्रस्ताव को मानना तो भारत की व्यवस्था थी।  यथा सुरक्षा परिषद में भेजने के बाद गवर्नर जनरल के परामर्श पर 30 दिसंबर 1947 को नेहरू को स्वीकार करनी पड़ी थी।

 

 

एक समस्या रह गई थी, पांडिचेरी और गोवा की इनके कई बस्तियों पर फ्रांसीसी और पुर्तगाली सरकारों का अधिकार था।  वहां की जनता भारत में मिलने को व्याकुल थी, फ्रांस ने तो एक शांति वार्ता में प्रश्न के पश्चात अपना अधिकार 1954 में छोड़ दिया।  किंतु पुर्तगाली गोवा पर अधिकार बनाएं बैठे रहे।  वहां की जनता ने भारत में विलय के लिए सत्याग्रह आरंभ किया।

 

 

किंतु इस सत्याग्रह को भी वहां के पुर्तगाल शासन ने कुचल डाला विवश होकर नेहरू (Pandi Nehru) को 17 दिसंबर 1961 को गोवा में सेना भेजनी पड़ी।  वहां के गवर्नर जनरल ने बिना किसी प्रतिरोध के समर्पण कर दिया। इस प्रकार पूरे भारत खंड पर भारतीय सरकार का अधिकार हो गया और राष्ट्र के एकीकरण का कार्य समाप्त हुआ।  हालांकि पुर्तगालियों  पर सैनिक कार्यवाही के लिए पुर्तगाल सहित कई राष्ट्रों ने काफी हो-हल्ला मचाया। किंतु , नेहरू य करने को विवश थे, क्योंकि जब अंग्रेजों के समान एक बड़ी शक्ति को भारत से बाहर कर दिया गया तो पुर्तगाल के समान एक छोटे देश के अधिकार में यहां का कोई क्षेत्र रहे या उचित नहीं था।  विशेषकर तब जब उस क्षेत्र की जनता विदेशी शासन के विरुद्ध झंडा उठा उठा चुकी थी।

 

 

     यहां यह बात बता देना उचित है , कि 1947 के विभाजन में एक बहुत बड़ी सांप्रदायिक समस्या खड़ी कर दी थी।  भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में अल्पसंख्यकों पर बर्बर अत्याचार हुआ. खून की होली खेली गई, और अनेक गांवों और नगरों में भयंकर आगजनी   की घटनाएं हुई। जिसके फलस्वरूप कुछ ही महीनों के अंतर्गत प्रायः 500000 लोग मारे गए और अरबों की संपत्ति बर्बाद हुई।

 

 

या भीषण समस्या नेहरू और उनके गृह मंत्री के समक्ष एक चुनौती सी थी।  दिल्ली में ही जो भारत सरकार के राजधानी थी भारी संख्या में पाकिस्तान से भाग कर और अपना सब कुछ गवा कर अनेक शरणार्थी आए तथा यहां के सैकड़ों अल्पसंख्यकों को अपनी जान गंवानी पड़ी। पूरे देश में जहां तहां दंगे भड़क उठे थे।  इन दंगों को रोकने और शरणार्थियों को बसाने की समस्या विकट थी। पहले तो लगा कि नेहरू सरकार इस समस्या के समाधान में सफल नहीं हो पाएगी या एक बड़ी चुनौती थी। अधिकारियों के बंटवारे के फलस्वरूप भी प्रशासनिक ढांचा चरमरा गया था।  फिर भी नेहरू और उनके गृह मंत्री की इच्छा के फल स्वरुप कुछ समय में ही दंगों पर नियंत्रण पा लिया गया और शरणार्थियों को भी यत्र तत्र बसा दिया गया तथा उन्हें समुचित सुरक्षा प्रदान की गई।


     नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) के समय में शरणार्थियों की समस्या

 

 

 नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) के समय में शरणार्थियों की समस्या पुणे उठे जब तिब्बत को चीन ने अपने अधिकार में ले लिया। उस समय बड़ी संख्या में तिब्बती भारी कष्ट उठाकर पहाड़ी मार्ग में भारत में शरण लेने पहुंच गए। उनके धर्म गुरु और शासक दलाई लामा को भी भारत में शरण लेनी पड़ी।  तिब्बती शरणार्थी भारत में काफ़ी भीतर तक शरण की खोज में पहुंच गए थे।  संझौली रेलवे स्टेशन के पास कितने तिब्बती स्त्री पुरुष और बालक बहुत दिनों तक खुले में पड़े हुए थे जाड़े में स्नान करने के बाद ही नहीं थे।  अतः उनके शरीर से भारी दुर्गंध फूट दी थी जिससे उनके आसपास जाना भी कठिन था जब इस छोटे स्थान पर इतनी संख्या में तिब्बती शरण ताक रहे थे तो उत्तर भारत के अन्य स्थानों की शरणार्थी समस्या का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता था।

      दलाई लामा को हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला नामक स्थान पर  शरण दी गई जहां पर अपने सैकड़ों अनुयायियों के साथ रहे, और अपनी सरकार की राजधानी धर्मशाला को ही घोषित कर तिब्बत के स्वतंत्र लड़ाई लड़ते रहे और और आज भी लड़ रहे हैं।

 

नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) की सरकार ने इन तिब्बती शरणार्थियों को भी किसी ना किसी तरह बसाया।  किंतु तिब्बत पर चीन को अधिकार करते हुए देखते रहने के कारण प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु (Pandit Jawaharlal nehru) की बहुत आलोचना भी थी।  चीन और भारत के मध्य तिब्बत एक बीच का राज्य था।  इसका चीनियों के हाथों में जाना उचित नहीं था चीन की सीमा अब सीधे भारत से लगने लगी थी, किंतु नेहरू की अपनी व्यवस्था थी एक वह एक बड़े राष्ट्र को भारत का दुश्मन नहीं बना सकते थे ।

 

नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) ने तिब्बत पर आक्रमण के पश्चात भी चीन को मित्र बनाए रखने का प्रयास किया, और हिंदी चीनी भाई भाई का नारा दिया।  पंचशील का सिद्धांत सामने रखा, जिसके अनुसार पांच सिद्धांत अपनाने थे।  जिनमें दो राष्ट्रों को एक दूसरे के प्रति अहिंसा और प्रेम का रुख अपनाना था, तथा दोनों देशों क सीमाओं को सुरक्षित रखना था।

 

 

    चीन पंडित नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) को  बुलावा देता रहा दिखावे के लिए तो उसने पंचशील के सिद्धांतों से सहमति जताई किंतु अंदर  इस देश पर उसने अपने को दृष्टि।

 

 

    नेहरू तथा इस देश का भ्रम तब टूटा जब 1962 में चीन ने पूरी तरह भारत पर आक्रमण कर दिया।  भारत अभी तक चीन से युद्ध करने की स्थिति में नहीं पहुंचा था।  इसके पास सैनिकों की संख्या चाहे जो हो पर अस्त्र-शस्त्र अपर्याप्त एवं पुराने ढंग के थे।  दूसरी तरफ चीन ने भारत से कई गुना संख्या में आधुनिक अस्त्र शस्त्रों से लेंस सैनिक भारत की सीमा में प्रवेश करा दिए।  भारतीय सैनिक निरंतर पीछे हटते रहे, कितने हताहत और घायल भी हुए। चीनी सैनिक भारत के एक विस्तृत भू-भाग पर अधिकार करते हुए अंदर पहुंच गए थे।  असम के तारापुर नगर को अधिकार में करते हुए वह उससे भी आगे बढ़ चुके थे।

 

 

इन पंक्तियों का लेखक उन दिनों पटना में था।  पटना वासियों की भी रात की नींद हराम हो चुकी थी।  इस अफवाह के कारण कि चीनी अब किसी भी समय पटना पहुंचते हैं, अचानक चीन ने स्वयं युद्धविराम घोषित किया और अपने सैनिकों को पीछे हटाना आरंभ किया। फिर भी भारत के 1 बड़े भूभाग पर उसने अधिकार जमा लिया जिसको अभी तक खाली नहीं कराया जा सका।

 

     नेहरू का भ्रम ही नहीं टूटा उन्हें  बल्कि उन्हें बहुत बड़ा सदमा भी लगा। देश पराजित और अपमानित हो चुका था , चीन के इस रवैया के कारण नेहरू ने जो अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि बनाए रखी थी वह धूमिल हो चुकी। ऊपर ऊपर तो पंडित नेहरू ने अपना आत्मविश्वास बनाए रखा किंतु अंदर अंदर वह काफी टूट चुके थे।

 

       संसद में जब इस  चीनी अतिक्रमण का प्रश्न उठाया गया तो नेहरू ने चीन द्वारा अधिकृत भूमि को यह कहकर अपनी सफाई दी कि उस पर घास की एकमात्र पत्ती भी नहीं रुकती। नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) की आलोचना प्राया पूरे देश में इस बात को लेकर भी हुई कि कृष्ण मेमन और उन्होंने रक्षा मंत्री बना रखा था। देश की सुरक्षा अगर खतरे में पड़ी तो रक्षा मंत्री को अपने पद से त्यागपत्र दे देना चाहिए था। अथवा ऐसा नहीं करने पर प्रधानमंत्री को स्वयं उसे इस पद से हटा देना चाहिए था। कृष्ण मेमन की विचारधारा को कुछ लोग साम्यवादी भी मानते थे। उनके प्रति जीप खरीद घोटाले का आरोप भी लगाया था। नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) इस सब के पश्चात भी कृष्ण में मन को रक्षा मंत्री के पद से हटाने को प्रस्तुत नहीं थे परंतु जन्म के समक्ष उन्हें घुटने टेकने पड़े और मेनन को उनके पद से हटाना पड़ा |




नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) इन सबों के कारणों की तरह टूट गए जिसके फलस्वरूप भी लकवे का शिकार हुए। कांग्रेस पार्टी पंडित जवाहरलाल नेहरू को ऐसी शारीरिक स्थिति में भी प्रधानमंत्री के पद पर बनाए रखना चाहती थी। और देश से यह बात छुपा कर रखना चाहती थी कि पंडित नेहरू शारीरिक रूप से नेतृत्व करने में अक्षम हो चुके थे। थोड़े ही दिनों में पश्चात उन्हें संसद तक में लाया जाने लगा।  यद्यपि उन्हें खड़े होने के लिए हाथों का सहारा लेना पड़ता था अंततः इस बीमारी और सदमे ने उनके प्राण ले ही लिया। और चीनी आक्रमण के 2 वर्ष भी नहीं पूरे हुए थे कि 1964 के मध्य उनका देहांत हो गया। पर अभी नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) के संबंध में कुछ बहुत सारी बातें करनी है।

 

महात्मा गाँधी की मृत्यु और पंडित जवाहर लाल (Pandit Jawaharlal Nehru) का कठिन समय

 

 

पंडित नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) के समक्ष एक कठिन समय उस समय भी आया जब 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे की  3 गोलियां खाकर महात्मा गांधी जी ने पूरा देश बापू कहकर पुकारता था अचानक हे राम कहकर स्वर्ग सिधार गए।  नेहरू के ऊपर से महात्मा गांधी का वरद हस्त जो जाता रहा।

 

पूरा राष्ट्रीय जैसे अनाथ हो गया महात्मा गांधी को पर्याप्त सुरक्षा प्राप्त नहीं होने के बात भी उठाई गई जिसके लिए गृहमंत्री पटेल और प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की आलोचना भी हुई। किंतु महात्मा गांधी की सुरक्षा अगर अपर्याप्त थी तो इसका कारण भी था।

 

महात्मा गांधी जन-जन में इतने लोकप्रिय थे कि उनकी हत्या भी की जा सकती थी। वह भी भारत की सरजमीं पर इसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था जिसमें भारत स्वतंत्रता की खुशियां मना रहा था उस समय निहत्थे गांधी पश्चिम बंगाल के नोआखाली में भड़के भीषण खूनी दंगे की आग को बुझाने में लगे थे। उस समय जब उनका बाल बांका भी नहीं हुआ तब किसी भारतीय वह भी हिंदू के हाथों से मौत के घाट उतारे जाएंगे इसकी परिकल्पना भी कैसे की जा सकती थी।

 

 

    इस अवसर पर नेहरू ने आकाशवाणी से राष्ट्र को संबोधित करते हुए एक अत्यंत का रोटी कम भाषण दिया था।

 

 

1947 में भारत स्वतंत्र अवश्य हुआ था किंतु एक वास्तविक गणतंत्र की स्थापना अभिशेष थी देश में संविधान का निर्माण नेहरू की देखरेख में संपन्न हुआ। दलित नेता डॉक्टर अंबेडकर का भी इसमें बहुत योगदान था। यह संविधान मुख्य था ब्रिटेन और कनाडा के संविधान के सदस्य था। ब्रिटिश क्राउन के अनुरूप भारत के राष्ट्रपति का पद था तो वहीं के प्रधानमंत्री की तरह भारतीय प्रधानमंत्री अत्यंत शक्ति संपन्नता राष्ट्रपति वस्तुतः अधिक शक्तियां नहीं रखता था।

 

 

और मंत्रिपरिषद की अनुशंसा के आधार पर ही निर्णय लेता था किंतु वह शासन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण रखे था। सर्वाधिक संपन्न का अधिकारी था मौलिक संविधान में कई संशोधनों के पश्चात उसकी शक्ति और छिड़ हो गई है जिसके फलस्वरूप मंत्रिपरिषद का अधिकार अधिक बढ़ गया है।



मंत्रिपरिषद का गठन करने का मत प्रधानमंत्री के ऊपर ही था इसलिए प्रधानमंत्री का निर्णय मंत्रिपरिषद का भी निर्णय होता है अतः एक तरह से प्रधानमंत्री जो चाहता है। राष्ट्रपति को उसे स्वीकृत करने देनी पड़ती है बहुत कम मामलों में राष्ट्रपति अपना स्वतंत्र निर्णय ले सकता है। उसके हाथ में एक शक्ति अवश्य है कि मंत्रिपरिषद के किसी प्रस्ताव से सहमत नहीं हो तो उसे पुनर्विचार के लिए वापस कर सकता है।

 

 

यदि पुनर्विचार के पश्चात भी प्रस्ताव उसी रूप में प्राप्त होता है तो राष्ट्रपति को उससे सहमत होने के अलावा और कोई चारा नहीं रहता। कहने  को राष्ट्रपति भारतीय सेनाओं का सर्वोच्च सेना अध्यक्ष है किंतु मंत्री परिषद की अनुशंसा पर ही वह युद्ध का निर्णय ले सकता है। राष्ट्रपति को आपातकालीन शक्तियां प्रदान है।

 

 

कई स्थितियों में वह राज्य अथवा केंद्र में राष्ट्रपति शासन लागू कर सकता है किंतु यह भी मंत्रिपरिषद की अनुशंसा पर ही होता है। अब तक राज्य में तो कई बार राष्ट्रपति शासन घोषित हुआ किंतु केंद्र में यह स्थिति मात्र एक बार आई थी। जब आपातकालीन स्थिति की घोषणा की गई थी या श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री के समय हुआ था उन्हीं की इच्छा से हुआ था।

 

 

तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को आधी रात के समय मंत्रिपरिषद पहले प्रधानमंत्री के प्रस्ताव पर स्वीकृत देनी पड़ी थी। इस पर बाद में श्रीमती गांधी पर लिखते समय विस्तार से प्रकाश डाला जाएगा। अभी यह सब इसलिए लिखा गया है कि संविधान में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की स्थिति को ठीक से  समझा जा सके वह संविधान जो मूलता पंडित नेहरू की देन था।

 

 

 

        संविधान निर्माण के पश्चात उसे 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया। इसी कारण 15 अगस्त को स्वतंत्र दिवस और 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है |

 

 

अभी आम चुनाव बाकी था जो 1951 से 52 के दौरान हुआ। 4 महीनों तक चले इस चुनाव को वयस्क मताधिकार के आधार पर कराया गया। इसके अनुसार 21 वर्ष से ऊपर के सभी व्यक्तियों को बिना लिंग जाति भेद अथवा धर्म भेद के मत देने का अधिकार प्राप्त था।  नेहरू युग (Pandit Jawaharlal nehru) की यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी। देश के इस प्रथम चुनाव में 17 करोड मतदाताओं को गहन सर्वेक्षण के आधार पर चिन्हित किया गया। 224000 मत दे केंद्र स्थापित किए गए कोई 1000000 अधिकारियों ने इस चुनाव का संचालन किया।




पंडित नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) ने इस प्रथम आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी के प्रचार के लिए विश्व में कार्य ऊर्जा का प्रदर्शन करते हुए प्राया 40000 किलोमीटर की यात्रा की और 3:30 करोड़ लोगों को अपने चुनावी दौरे में संबोधित किया।  देश में अब तक कई राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियां बन चुकी थी।

 

इन लोगों ने भी अपने प्रतिनिधि कुछ स्वतंत्र उम्मीदवार खड़े हुए,लेकिन नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) के प्रभाव से कांग्रेस पार्टी को प्रचंड बहुमत प्राप्त हुआ।  कुल 489 स्थानों में संसद के लिए कांग्रेस ने 364 स्थान विजित किए। कोई दूसरी पार्टी कांग्रेस के नहीं आसपास भी नहीं थी। समय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का साया भी पार्टी को प्राप्त नहीं था। ऐसी स्थिति में चुनावी विजय का श्रेय पंडित नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) को ही जाता है, चुनाव अभियान के केंद्र में वही थे।  विपक्षी दलों ने नेहरू पर हर संभव दिशा से आक्रमण किया किंतु नेहरू के समक्ष आया कोई नहीं टिक सका।

 

 

नीचे की तालिका स्पष्ट करेगी कि पार्टी किस तरह लोक सभा के चुनाव में अन्य पार्टियों और निर्दलीय उम्मीदवारों को बुरी तरह पराजित करने में सफल हुई।

 

 

  पार्टी                                                                    जीती गयी सीटें
1- कांग्रेस364 
2- निर्दलीय
41
3-  अन्य दल30 
4- साम्यवादी और सहयोगी23 
5- समाजवादी12 
6- किसान मजदूर पार्टी 
7- हिन्दू महा सभा 
8- राम राज्य परिषद्
9-  जन संघ
योग    489

 राज्य विधानसभाओं में भी पराया यही स्थिति थी नेहरू ने चुनाव प्रचार के दौरान संप्रदायिकता को चुनाव का मुद्दा बनाया था। नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) सही अर्थों में एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे यह गुण उनमें वस्ता महात्मा गांधी के प्रभाव से आया था।  महात्मा गांधी के लिए हिंदू मुसलमान के मंत्र कोई भेद नहीं था। यहां तक कि पाकिस्तान बनने के पश्चात भी वह हिंदुस्तान और पाकिस्तान को समान दृष्टि से देखते थे।

 

 

बहुत भूतों की दृष्टि में भी हिंदुस्तान की अपेक्षा पाकिस्तान से अधिक प्रेम करते थे। इसी कारण हिंदू उग्रवादियों ने उनकी हत्या भी कराई कांग्रेस पार्टी की सरकार जो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गृहमंत्री सरदार पटेल के अंतर्गत चल रहे थे। पाकिस्तान को घोषित मुआवजा देने की आनाकानी कर रहे थे तो महात्मा गांधी ने अनशन पर पाकिस्तान की राशि दिलाने के लिए सरकार को बाध्य किया था।



पंडित नेहरू पर उनके पिता पंडित मोतीलाल नेहरु का प्रभाव भी इस संबंध में पड़ा था, पंडित मोतीलाल पूर्णतया पाश्चात्य रंग में रंगे थे और किसी पूजा पाठ में भी विश्वास नहीं करते थे , नेहरू पर हिंदू धर्मावलंबी होते हुए भी अपने दैनिक जीवन में किसी पूजा अर्चना को महत्व नहीं देते थे कई लोग इस कारण उन्हें नास्तिक भी समझने लगे थे |

 

नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) का  असर कांग्रेस पार्टी के लिए एक उदाहरण बन गया और उनके बाद के सभी पार्टी नेता आज तक इस धर्मनिरपेक्षता को पूरी तरह समर्पित है।  नेहरू ने चुनाव अभियान के दौरान स्पष्ट कहा था, कि यदि सांप्रदायिक शक्तियां को खुलकर खोलने दिया जाए तो या भारत का तोड़ दे, तोड़ डालेंगे।

 

यह प्रथम चुनाव प्राया हिंसा रहित तथा पूर्णतया व्यवस्थित निष्पक्ष एवं स्वतंत्र था। पूरे संसार ने इस चुनाव की सराहना की। भारत विश्व का सबसे बड़ा राज्य है, ऐसी स्थिति में वृहद पैमाने पर निष्पक्ष चुनाव एक बड़ी चुनौती भी  जिसका सामना नेहरू के नेतृत्व में सफलतापूर्वक उनकी सरकार ने किया।  जो चुनाव एक संविधान द्वारा गठित स्वतंत्र चुनाव आयोग द्वारा कराया गया और आज भी कराया जाता है।

 

लेकिन आयोग को सरकारी तंत्र की सहायता लेनी ही पड़ती है , और केंद्र अथवा राज्य की सरकारें अगर चुनाव आयोग का भरपूर सहयोग नहीं करें। तो यह चुनाव आयोग के बूते की बात नहीं है, कि इतने बड़े पैमाने पर चुनाव करा लें।  उस समय और उसके पश्चात भी बहुत समय तक मात्र 1 सदस्य चुनाव आयोग हुआ करता था।  यद्यपि चुनाव आयोग के इस सदस्य को प्रमुख चुनाव आयुक्त की संज्ञा मिली थे, प्रथम चुनाव आयुक्त का भार वहन किया था सुकुमार सेन ने।

 

प्रथम चुनाव के समय पराया 46% से अधिक मतदाताओं ने भाग लिया स्वतंत्रा आंदोलन में कई महिलाओं ने खुलकर भाग लिया था जिसके फलस्वरूप महिलाओं में भी राजनीतिक चेतना जागृत हो आई थी।  एक अनुमान के अनुसार मत डालने योग्य महिलाओं से महिलाओं में से 40% महिलाओं ने मत दिया था |

 

नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) युग में तीन बार चुनाव हुए थे यह चुनाव पांच 5 साल के अवध पर 1952 1957 और 1962 में संपन्न हुए थे। प्रसन्नता की बात है कि चुनाव में जनता की दिलचस्पी निरंतर बढ़ती जा रही थी नीचे की तालिका स्पष्ट करेगी कि किस साल में मतदाताओं का प्रतिशत कितना था।


   वर्ष                                      प्रतिशत
  1952                                  46.6
  1957                                    47
   1962                                    54

सभी चुनाव में कांग्रेस को भारी संख्या में मत प्राप्त हुए। किंतु 1957 में केरल में साम्यवादी दल की विजय हुई और वहां उसकी सरकार गठित हुई वहां अब भी इस पार्टी की सरकार बनती है।

 

 

नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) नागरिक अधिकारों का बहुत सम्मान करते थे वह सही रूप में एक जनवादी नेता थे। एक निष्ठावान प्रजातंत्र वादी के रूप में वे सदा विख्यात रहे नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) यह देव एक सशक्त प्रधानमंत्री थे और हर चुनाव में उन्हें अधिकाधिक शक्ति प्राप्त होती गई थी।  तथा वे उन्होंने अपने शक्ति का कभी दुरुपयोग नहीं किया।

 

 

न्यायपालिका को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी उसके कार्यों में सरकारी दखल कभी नहीं दिया गया बल्कि उसकी शक्ति बढ़ती गई क्योंकि कार्यपालिका और न्यायपालिका का पूरी तरह विभाजन कर दिया गया। यहां तक कि पहले कार्यवाही कार्यकारी मजिस्ट्रेट तथा सब डिविजनल मजिस्ट्रेट तथा जिला पदाधिकारियों को बहुत सारी न्याय न्यायिक शक्तियां उपलब्ध थी उसे बहुत सारे ऐसे मुकदमों की सुनवाई और उन पर फैसला भी करते थे जिनकी सजा कई कई वर्षों की होती थी।

 

 

उधर न्यायपालिका भी यही करती थी दोनों को प्रथक प्रथक कर देने के पश्चात कार्यकारी पदाधिकारियों के पास सीमित न्यायिक शक्ति रह गई। अब से लंबी सजा वाले कोई मुकदमा नहीं देख सकते थे। जिला दंडाधिकारी हों अथवा जिलाधिकारी की न्यायिक शक्तियां जिला जज के हाथ में चली गई। सब डिविजनल मजिस्ट्रेट ओके साथ-साथ सब डिविजनल न्यायिक पदाधिकारियों के स्थापना हुई।

 

 

कार्यकारी मजिस्ट्रेट के साथ-साथ न्यायिक मजिस्ट्रेट की स्थापना हुई। राज्यों में इसके लिए न्यायिक सेवा की स्थापना हुई उसकी परीक्षा का संचालन राज्य लोक सेवा आयोग का दायित्व बना। इसमें वही लोग उम्मीदवार बन सकते थे जिन्होंने स्नातक की परीक्षा के साथ कानून में भी स्नातक की उपाधि प्राप्त की हो या निम्न वत योग्यता थी।

 

 

          इस प्रकार कार्यपालिका विधायिका और न्यायपालिका सरकार के यह तीनों अंग अपने-अपने क्षेत्र में पूर्णतया स्वतंत्र हो गए किसी के कार्यों का अथवा अधिकारों का कोई अतिक्रमण नहीं कर सकता था।

 

 

नेहरू संसद को अधिकारिक सम्मान देते थे। अपने पार्टी के प्रचंड बहुमत के पश्चात भी वह संसद की गरिमा पर कोई आंच नहीं आने देने के पक्ष में थे इसी विचार के फलस्वरूप पर विपक्ष भले ही बहुत मजबूत नहीं था। उसकी बात को सुनने के लिए सदा तैयार रहते थे नेहरू संसद में प्रश्नकाल के समय होने वाली बहसों के अवश्य उपस्थिति रहते थे इसी कारण विपक्ष आज की तरह गैर जिम्मेदार नहीं था।



उस समय संसद में आज की तरह हंगामे और तोड़फोड़ नहीं हुआ करते थे पंडित नेहरू के इस आचरण को अपनी नीतियों को लागू करने में विपक्ष का प्राया सदा सहयोग ही प्राप्त होता था नेहरू के समय पक्ष और विपक्ष दोनों में धुरंधर नेता थे जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी इन सभी को साथ लेकर चलना नहीं रोज ऐसे व्यक्तित्व के बस की ही बात थी नेहरू के काल में ही आकलन समिति के दृश्य संसदीय समितियों का गठन आरंभ हुआ इनके माध्यम से प्रशासन पर निगरानी रखने में सुविधा हुई की समितियां समालोचना की महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी इनमें यथासंभव पक्ष और विपक्ष दोनों के सदस्य होते थे।

 

नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) के प्रधानमंत्री तो काल की एक बहुत बड़ी विशेषता यह थी कि मंत्रिपरिषद की संस्था का विकास बहुत स्वस्थ रूप से हुआ यद्यपि मन प्रधानमंत्री की मंत्रिपरिषद के सदस्यों को चुनता था | और उसी की अनुशंसा पर राष्ट्रपति उनकी नियुक्ति करता था इसके बावजूद पंडित नेहरू ने आजकल के विपरीत अपने मंत्रिपरिषद के सदस्यों पर कभी कोई दबाव नहीं डाला मंत्रिपरिषद के सदस्य अपने विचार रखने को पूर्ण स्वतंत्र थे, और उनके विचारों का भी आदर करते थे इसी प्रकार उनके विभाग के कार्यों में भी उन्हें सूत्र पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी प्रधानमंत्री नेहरू कभी उन में दखल अंदाजी नहीं करते।

 

 

एक स्वस्थ परंपरा यह भी थी जो अब नहीं रही कि नेहरू राज्य सरकारों की गतिविधियों में भी अनावश्यक दखल नहीं देते थे।  पार्टी के कार्यों में भी राज्य इकाइयों पूरी तरह स्वतंत्र थी अपने नेता अर्थात मुख्यमंत्री का चुनाव राज्य की पार्टी इकाई स्वयं करती थी आज की तरह मुख्यमंत्री आला कमान कमान द्वारा राज्य पर थोपा नहीं जाता था राज्य के पार्टी अध्यक्ष का पक्ष तब तक प्रभावशाली पद था और अध्यक्ष का चुनाव करने के लिए भी राज्य का स्वतंत्र थी।

 

 

नेहरू युग में सेना के ऊपर देश के नागरिक सरकार की श्रेष्ठता पूर्णतया स्थापित होकर प्रधानमंत्री नेहरू ने यह सुनिश्चित किया कि सेना राजनीति में कभी हस्तक्षेप नहीं करें। उनके समय में सैनिक बलों का आकार यथासंभव छोटा रखा गया कई यूरोपीय राज्यों में सेना का हस्तक्षेप चल रहा था जैसे 19वीं सदी में फ्रांस और जर्मनी में इसी प्रकार कई तीसरी दुनिया के देशों में भी सेना शासन का अधिकार अपने हाथ में ले रही थी।

 

 

पड़ोसी पाकिस्तान के राजनीतिज्ञों के दूरदर्शिता के फल स्वरुप ही वहां अक्सर सेना का ही राज्य रहा आज भी वही स्थिति है। 1954 में जब अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को भारी सामरिक सहायता प्रदान की गई तब भी नेहरू ने भारतीय सेना पर खर्च में वृद्धि नहीं की। कुल राष्ट्रीय आय का 2% ही उस पर वह होता था सेना में भर्ती की नीति में भी परिवर्तन लाया गया। अंग्रेजों के समय जहां देश के लड़ाकू जातियों जैसे राजपूतों और सिखों को बहुत महत्व मिलता था वहीं अब सेना में समाज के हर वर्ग को प्रतिनिधित्व मिला।

 




स्वतंत्र के प्रारंभिक वर्षों में सेना से खतरा संभव था जिसे पंडित नेहरू ने अपने विवेक और बुद्धि के बल पर नहीं होने दिया।  इस दिशा में अत्यंत महत्वपूर्ण कदम यह था कि पहले जहां सेना के तीनों इकाइयां अर्थात थल सेना वायु सेना और जल सेना एक ही सेना अध्यक्ष के अंतर्गत होती थी।  वही नहीं अब तीनों इकाइयों को प्रथक प्रथक कर दिया था और हर सेना का सेनाध्यक्ष उसकी इकाई से ही नियुक्त होता था। या भारत का सौभाग्य है कि नेहरू द्वारा स्थापित परंपरा और नीति आज भी कायम है, इसके फलस्वरूप स्वतंत्र भारत के इतिहास में सेना ने कभी सरकार का तख्ता और लड़ने का प्रयास नहीं किया।

 

 

नेहरू के समय उनके गृहमंत्री सरदार पटेल से प्रशासनिक ढांचे को लेकर आरंभ में मत भिन्नता  नेहरु समझते थे कि अंग्रेजों के काल से चली आ रही व्यवस्था जो औपनिवेशिक शासन के लिए थी साम्राज्यवादी शासन के हितों को ध्यान में रखकर की गई थी।  एक कल्याणकारी प्रजातांत्रिक प्रशासन के अनुकूल नहीं थी उन्होंने एक बार कहा था कि यह एक ऐसा पुराना और टूटा फुटा तथा धीमी गति से चलने वाला जहाज है।  जो इस तीव्र परिवर्तन के काल में किसी योग्य नहीं रह गया है, उनके अनुसार इस को हटाकर दूसरे ढांचे के लिए स्थान बनाना पड़ेगा वस्ता एक प्रशासनिक व्यवस्था की प्रमुख दूरी आईसीएस संस्था थी।

 

इस इंडियन सिविल सर्विस की स्थापना अंग्रेजों ने की थी इसकी प्रतियोगिता परीक्षा उस समय लंदन में हुआ करती थी पहले केवल अंग्रेज प्रत्याशी ही इसमें भाग ले सकते थे बाद में भारतीयों को भी छूट मिली किंतु कुछ भारतीय ही आई.सी.एस की परीक्षा उत्तीर्ण कर सके थे अंग्रेजों के चले जाने के पश्चात केवल भारतीय अधिकारी बच्चे थे |आई.सी.एस. के इन भारतीय उच्चाधिकारियों और उनके कनीय अधिकारियों के माध्यम से तत्कालीन व्यवस्था चल रहे थे, नेहरू इसी प्रशासनिक ढांचे के विरुद्ध थे।

 

 

पटेल ने इसका घोर विरोध किया, और कहा कि इस समय इससे छेड़छाड़ करने से पूरे राष्ट्र की आंतरिक प्रशासनिक व्यवस्था गड़बड़ा जाएगी।  स्थिरता को यह नवजात राष्ट्रीय नहीं खेल पाएगा, पटेल ने यह भी कहा कि इस व्यवस्था के साथ काम करते हुए उन्होंने पाया है, कि इसमें पर्याप्त राष्ट्रभक्ति है, और ऐसा नहीं होता तो भारतीय संघ कभी का विघटित हो गया रहता।




पंडित नेहरू ने अंततः पटेल के विचार से सहमति जताई और वही प्रशासनिक ढांचा रखा गया अंतर इतना ही आया कि आई सी एस के स्थान पर आईएएस कर दिया गया, और इसकी परीक्षा एक स्वतंत्र आयोग केंद्रीय लोकसेवा आयोग द्वारा ली जाने लगी।  उम्मीदवारों की आयु सीमा पहले की तरह ही कम रखी गई , इस नियमित परीक्षा से पर्याप्त संख्या में अधिकारी नहीं मिल पा रहे थे।  तो 1955 में एक बार नियमित परीक्षा के अतिरिक्त आयु सीमा में ढील देकर अन्य नौकरियों में कार्यरत अथवा स्वतंत्र व्यक्तियों को भी अवसर प्रदान किया गया।  इसमें कॉलेजों के लेक्चरर से लेकर सिनेमाघरों के प्रबंधक तक घर बैठे और कई लोग सफल भी हुए, इस तरह प्रशासनिक तंत्र में पर्याप्त अधिकारी हो गए।

 

नेहरू ने क्या अनुमान अनुभव किया कि भारतीय समस्याओं के समाधान के लिए विज्ञान एवं तकनीकी का विकास अत्यंत आवश्यक है।  उन्होंने पहले पहल वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकी शिक्षा पर बल दिया।  तकनीकी व्यक्तियों के परीक्षण और संगठित करने हेतु पांच आईआईटी संस्थानों को खोलने का 1952 में ही निर्णय लिया गया ऐसी पहली संस्था खड़कपुर में खोली गई बाद में चार ऐसी संस्थाएं दिल्ली कानपुर मद्रास और मुंबई में स्थापित हुए इस दिशा में भी बढ़ाया गया 1948 से 1949 में जहां वैज्ञानिक गतिविधियों पर मात्र 1 पॉइंट ₹100000000 का खर्च हो रहा था वही वह बढ़कर 1965 से 19 06 करोड़ रुपए हो गया वैज्ञानिकों एवं तकनीक तकनीशियन ओं की संख्या 1950 ईस्वी में मात्र 188000 थी वह 1965 में बढ़कर 731000 से अधिक हो गई इंजीनियरिंग और तकनीकी कॉलेजों में छात्रों की संख्या 1950 में मात्र 11000 थी वह बढ़कर 1965 में ₹78000 हो गयी।

 

 

      पंडित जवाहरलाल नेहरू और परमाणु ऊर्जा

 

 

यूं तो भारत अब पूर्णतया परमाणु ऊर्जा संपन्न राष्ट्र हो गया है और यह कई परमाणु बमों का परीक्षण भी कर चुका है यह परीक्षा प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के काल से शुरू हुआ और भाजपा के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के समय वह पूर्णतया पर पहुंचा, किंतु यदि जवाहरलाल ने अपने समय में ही परमाणु ऊर्जा के विकास का श्रीगणेश नहीं किया होता , तो भारत आज परमाणु शक्ति से युक्त देश नहीं बन पाता पंडित नेहरू ने 1948 के प्रारंभ में स्पष्ट लिखा था, भविष्य उनका है , जो परमाणु ऊर्जा उत्पादित कर सकेंगे या ऊर्जा भविष्य का स्वरूप प्रमुख ऊर्जा स्रोत बनता जा रहा है, स्वभाव , था सैनिक सुरक्षा भी इससे जुड़ी है |

 

1948 अगस्त में देश में एक परमाणु ऊर्जा आयोग का गठन किया गया या सीधे पंडित नेहरू के निर्देशन में कार्य करता था, आयोग के अध्यक्ष पद पर देश के अग्रणी परमाणु वैज्ञानिक होमी भाभा बने 6 वर्षों के बाद ही 1954 में एक पृथक प्रमाण विभाग के भी गठित किया गया या सीधे प्रधानमंत्री के अंतर्गत था इस विभाग के सचिव होमी भाभा भी बनाए गए यद्यपि वे आई सी एस आई ए एस अधिकारी नहीं थे 1956 में ही भारत के प्रधान प्रथम परमाणु रिएक्टर ने काम करना आरंभ कर दिया इसकी स्थापना मुंबई में हुई थी नेहरू के अनुसार भारत परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग को समर्पित था इस ऊर्जा के विकास से बड़ी मात्रा में बिजली का उत्पादन संभव था कि नेहरू काल में ही भारत के ऊर्जा शक्ति इतनी बढ़ गई थी कि उससे परमाणु बम भी बनाया जा सकता था |



पंडित जवाहरलाल नेहरू और शिक्षा

 

 

पंडित जवाहरलाल नेहरू जी ने देश और विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त की थी अतः शिक्षा के क्षेत्र में भारत की दयनीय स्थिति उनके लिए असह्य थी गुलामी के दिनों में भारतीय लोगों को साक्षर और शिक्षित करने का प्रयास ना के बराबर हुआ मुसलमानों और गुलामों के समय कुछ मदरसे अवश्य को ले गए पर ईद में पढ़ाई उर्दू फारसी तक सीमित थी। अंग्रेजों ने जब अपने शासन को सुव्यवस्थित कर लिया तो उन्होंने अपनी भाषा अंग्रेजी के प्रचलन के लिए कुछ विश्वविद्यालय अवश्य खोलें और कुछ विद्यालय और थोड़े बहुत कॉलेज एवं निचले स्तर की शिक्षा के लिए कुछ विद्यालयों की स्थापना की कुछ उत्साही धनी एवं समाजसेवी व्यक्तियों ने कुछ शहरों और कस्बों एवं गिने-चुने गांव में उच्च विद्यालय मध्य विद्यालय एवं प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना की।

 

 

अंग्रेजो के द्वारा अंग्रेजी पढ़ने और कुछ लोगों को शिक्षित करने का मुख्य उद्देश सरकारी कार्यालयों के लिए कि रानियों को पैदा करना था। ऐसी स्थिति में उच्च शिक्षा की व्यवस्था मात्र नाम की थी उदाहरण के लिए बंगाल उड़ीसा और बिहार के लिए मात्र एक विश्वविद्यालय कोलकाता में था यही स्थिति सभी प्रांतों को लेकर थी बाद में पटना विश्वविद्यालय की स्थापना हुई फिर भी बिहार और उड़ीसा दोनों के लिए एकमात्र विश्वविद्यालय था या स्थिति बहुत दिनों तक बनी रहे उस समय और हाल हाल तक उड़ीसा से सीधे बिहार आना कठिन था कोलकाता होकर ही पटना तक की यात्रा करनी पड़ती थी।

 

 

शिक्षा और शासकीय तंत्र का कम ध्यान जाने के फल स्वरूप स्थिति यह थी कि 1951 में भी भारत के संपूर्ण जनसंख्या का प्राया साढे 16% ही साक्षरता अर्थात इसमें से अधिकांश केवल थोड़ा बहुत लिख पढ़ सकते थे सभी पूर्णता शिक्षण नहीं थे। केवल ग्रामीण क्षेत्रों की बात करें तो साक्षरता की संख्या चौकानेवाले अर्थात मात्र 6% थी सब को ज्ञात है कि भारत ग्रामों का देश है, और यहां की आबादी का 80% हिस्सा ग्रामीण ही है , उस समय तो शहरों में कोई विशेष सुविधा नहीं होने के कारण गांव के लोग गांव में ही रह जाते थे।  आज तो गांव की एक खासी आबादी शहरों की और छोटी बड़ी नौकरियों के लिए पलायन भी करती हैं।

 

 

नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) ने शिक्षा के इस शर्मनाक स्थिति का अनुभव किया और इसकी ओर लोगों का ध्यान भी उत्कृष्ट किया और शिक्षा के विकास में अपनी प्रतिबद्धता भी प्रकट की।  1961 में राष्ट्रीय विकास परिषद को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था मैं यह अनुभव करने लगा हूं कि सब कुछ शिक्षा पर ही आधारित है। और किसी भी वजह से यदि हमारे मस्तिष्क की काट काट लिए जाएं और हम कार्य ही ना कर सके, तो पृथक बात है  पर हमें शिक्षा को किसी प्रकार क्षति नहीं पहुंचाने देना चाहिए पंचवर्षीय योजनाओं के आरोप प्रारंभ से ही शिक्षा बजट में पर्याप्त वृद्धि की गई संविधान में यह व्यवस्था थी, कि 1961 तक 14 वर्ष की उम्र तक के हर बच्चे को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा सरकार का दायित्व है, बाद में इसे बढ़ाकर 1966 कर दिया गया।




शिक्षा की स्थिति में नेहरू काल और बाद में भी प्रगत आई पर वांछित प्रगट आज तक भी संभव नहीं हो सकी कई कारणों में एक कारण यह भी है कि शिक्षा मूलता राज्यों का विषय है। और राज्यों ने इस पर पर्याप्त ध्यान अब तक नहीं दिया है| मात्र केरल भारत का एक ऐसा राज्य है जहां साक्षरता शत प्रतिशत है।

 

 

फिर भी नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) काल में इस दिशा में जितना संभव था उतना किया गया शिक्षा पर धनराज बढ़ाई गई और 1951 से 52 में जहां शिक्षा के ऊपर वह मात्र करीब ₹200000000 था। वहीं 1964 से 65 में 1 या 146 करोड़ से ज्यादा हो गया स्वतंत्रता प्राप्ति के समय पूरे देश में विश्व में अध्ययन विद्यालयों की संख्या मात्र 18 थी शिक्षा की दयनीय ता का अनुमान इसी से लग सकता था।

 

 

छात्रों की संख्या 300000 ही थी कॉलेजों की संख्या भी बहुत थोड़ी थी नेहरू के प्रयासों के फलस्वरूप विश्वविद्यालयों की संख्या में 3 गुना वृद्धि हुई और यह 54 हो गई महाविद्यालयों की संख्या 25 व पहुंच गई थी इसके फलस्वरूप छात्रों की संख्या में आशातीत वृद्धि हुई और स्नातक एवं स्नातकोत्तर छात्रों की संख्या 600000 से अधिक हो गई नेहरू ने लड़कियों की शिक्षा पर विशेष रूप से ध्यान दिया या इससे यह स्पष्ट होता है, कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ही उन्होंने अपनी पुत्री इंदिरा को विदेश तक पढ़ने को भेजा था 1964 तक छात्राओं की संख्या में विस्मयकारी रूप से वृद्धि हुई अर्थात में बढ़कर 6 गुना हो गई।

 

 

जो वह एक अवध के अंतर्गत सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का लक्ष्य अभी बहुत दूर था। 1964 में नेहरू का देहांत हो जाने के कारण शिक्षा के क्षेत्र में त्वरित विकास संभव नहीं हो सका। आंकड़े बताते हैं कि 1965 से 66 के दौरान 6 से 14 वर्ष के बालकों का मात्र 61% ही विद्यालय जाता था। छात्राओं के लिए यह संख्या केवल 43% ही चौंकाने वाली बात यह थी कि विद्यालयों में विशेषकर प्राथमिक स्तर के विद्यालयों में पढ़ाई संबंधी सुविधाएं ना के बराबर थी।

 

 

अधिकांश ऐसे स्कूलों में अपना पक्का मकान भी नहीं था ब्लैक बोर्ड चौक डस्टर के साथ साथ बैठने की सुविधा भी नहीं थी पीने का पानी तो दूर की बात थी अधिकांश ग्रामीण स्कूलों के लड़के स्कूलों में जमीन पर बैठने के लिए अपने घर से ही कोई सामान लाते थे जैसे दरी का टुकड़ा आदि अत्यंत गरीब परिवार के बच्चों के पास यहां भी नहीं होता था वह 22030 की सतह पर ही बैठते दूसरे बच्चों के साथ किसी प्रकार बैठ लेते या स्थिति गुलामी के काल से ही चली आ रही थी अधिकांश प्राइमरी विद्यालयों में एक ही शिक्षक होता था और वह एक ही कमरे में तीन तीन कक्षाओं के छात्रों को बैठाकर पढ़ाया करता था।

 

 

इन पंक्तियों के लेखक को स्थानीय सत्य का स्वयं अनुभव है, वह गांव के जिस प्राइमरी स्कूल की तीसरी कक्षा में पढ़ा था , वहां वहां अपने बैठने के लिए घर से कमल की एक छोटी आसनी ले जाता था।  जो पूजा घर के से निकाली गई होती थी, एक ही किराए के कमरे में पहली से तीसरी तक के छात्र जरा जरा सी दूरी बना कर बैठे थे, एक ही शिक्षक थे , वह भी रविवार और अन्य छुट्टियों तो करते ही थे।

 

 

प्रत्येक मंगलवार और शुक्रवार को आधे दिन की छुट्टी करते थे क्योंकि उन्हें संझौली स्थिति बाजार को जाना होता था।  बाजार के दिनों में अक्सर वे घर से कोई तेल का बर्तन झोला लेकर आते थे या देखते ही छात्रों में खुशी की लहर फैल जाती थी, और सब सोचते थे कि आज दोपहर के बाद छुट्टी निश्चित है , रविवार को आधे दिन की पढ़ाई होती थी वह आधा दिन भी शनिश्चरा अर्थात एक पाव के आसपास प्रत्येक छात्र के चावल वसूलने में जाता था।   अस्पष्टता भ्रष्टाचार और शोषण का उदाहरण था ,जो गरीब लड़का शनिवार को चावल नहीं ले जाता उसकी दोनों हथेलियों पर शिक्षक महोदय की छड़ी इस रूप में पढ़ती थी, कि कई बार रक्त निकल आता था | इस शिक्षक की मनमानी देखने वाला कोई नहीं था , अत: उसका मनमाना व्यहार चलता रहता।

 

या सन 1944 से 45 की बात है , ग्रामीण विद्यालयों में लाख प्रयासों के बाद स्थिति में शत-प्रतिशत सुधार नहीं आया | नेहरू जैसा शिक्षक के लिए पूर्णरूपेण समर्पित और दूरदर्शी दृष्टि का व्यक्ति अपने भारत में प्रधानमंत्री के रूप में कोई नहीं प्राप्त हुआ सभी प्रयासों के बावजूद गांव में वृक्षों की छाया के नीचे चलने वाले विद्यालयों के अब भी कमी नहीं

है |

 

इंदिरा गांधी के समय और उनके बाद तक प्रौढ़ शिक्षा पर बल देकर निरीक्षण ना दूर करने का प्रशंसनीय प्रयास किया गया, किंतु इस पर बाद में आएंगे |


 नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) और सामुदायिक विकास कार्यक्रम

 

 

परतन्त्रता के दिनों में राष्ट्रीय विकास का कोई योजनाबद्ध कार्यक्रम नहीं चला अंग्रेजों ने छिटपुट रूप से कुछ विकास के कार्य किए इनमें कुछ महत्वपूर्ण कार्य भी थे।  जैसे प्रायः पूरे देश में रेलवे लाइनों को बिछाना इन पर सवारी गाड़ियों और माल गाड़ियों को चलाना सड़क व्यवस्था में कुछ हद तक विकास करना, डाक एवं तार की सुविधा ब्रिटिश सरकार के इन प्रयासों से यातायात और संचार की सुविधाएं देश को प्राप्त हुई।

 

 

यह सुविधाएं मुख्य नगरों तक सीमित रहे देश की सर्वाधिक जनता जो गांव में रहती है।  वहां प्रकाश की कोई किरण शायद ही पहुंची गांव अब भी आर्थिक पिछड़ेपन शोषण अशिक्षा कुपोषण आदि के अंधकार से ग्रस्त रहस्य जनता के उपलब्धि के पश्चात गांव के विकास पर अधिक बल देने की आवश्यकता थी।  उपलब्धि के पश्चात गांव के विकास पर अधिक बल देने की आवश्यकता थी, साथ ही पूरे राष्ट्र को भी विकसित करना था | विशेषकर औद्योगिक दृष्टि से देश के उद्योग धंधे पर आया चौपट हो चुके थे | भारतवर्ष में मुख्यतः ब्रिटेन के कल कारखानों के लिए कच्चे माल का निर्यातक मात्र रह गया था | राष्ट्रीय आय में साथ ही समग्र उत्पादन में वृद्धि लाना आवश्यक था |

 

 

पंडित नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) का ध्यान इन सभी पर स्वतंत्र संग्राम के दौरान ही था, और उन्होंने लोगों को आशाएं भी दी थी।  और स्वतंत्र प्राप्ति के समय अपने भाषण में स्पष्ट भी किया था   कि जो वादे किए गए हैं , उनको पूरा करने का दायित्व स्वतंत्र देश की सरकार को उठाना है।  नेहरू ने सामुदायिक विकास कार्यक्रम के माध्यम से गांव के विकास का कार्यक्रम हाथ में ले लिया साथ ही पंचायती राज के विकास और उसके सुंदरीकरण पर भी जोर देने का लक्ष्य रखा। सर्वांगीण विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाओं को लागू करने की महत्वाकांक्षी योजना में नहीं सामुदायिक विकास कार्यक्रम के अंतर्गत 1952 में कार्य आरंभ हुआ, या सीमित स्तर का कार्यक्रम था।

 

 

जिसे आगे जाकर विस्तार पाना था प्रथम चरण में विकासखंड स्थापित हुए प्रत्येक प्रखंड में 100 गांव और प्राया 60 से 70 हजार की आबादी सम्मिलित थे 1960 के दशक में आते-आते देश का अधिकाधिक भाग सामुदायिक विकास खंड के अंतर्गत इस समय तक 6000 प्रखंड स्थापित हो चुके थे।  प्रखंड विकास पदाधिकारी अतर्रा क्षेत्र पदाधिकारी होता था ,इसका चयन प्रतियोगिता परीक्षाओं से होता था जिसका संचरण राज्य लोक सेवा आयोग द्वारा होता था।  अक्सर अगर महत्त्व तथा उप समाहर्ता के रूप में चुने गए पदाधिकारी इस पर स्थापित होते थे, प्रशासनिक सेवा के यह पदाधिकारी कुछ समय तक प्रखंडों में कार्य करने के पश्चात प्रशासन के मुख्यधारा में आ जाते थे| और पदोन्नति प्राप्त कर राज्य में ऊंचे पदों पर पहुंचते थे, उप समाहर्ता मात्र 3 वर्षों तक प्रखंड विकास पदाधिकारी रहते थे किंतु संभालता 12 वर्ष या उससे अधिक की अवधि तक इस पद पर रहते थे बाद में कई राज्यों में इन दोनों पदों का बिलियन हो गया केवल उप समाहर्ता नियुक्त होने लगे।

 

 

कई राज्यों में प्रखंड पदाधिकारी का प्रथम वर्ग सुरक्षित हो गया , इस सरबंग को भी पदोन्नत प्राप्त होती थी, किंतु विकास कार्यों से संबंधित पदों पर ही उदाहरण के लिए एक प्रखंड विकास पदाधिकारी जिला विकास अधिकारी के पद पर पहुंच सकता था।  प्रखंड विकास पदाधिकारी अधिकांश राज्यों में प्रारंभिक स्तर के प्रशासन विकास तथा स्वराज के दायित्व का केंद्र बन गया था।  आरंभ में प्रखंड विकास पदाधिकारी को स्वराज राजस्व संबंधी कार्यों के संपादन के कारण प्रखंड विकास पदाधिकारी सह अंचल अधिकारी भी कहा जाता था ,बाद में अंचल अधिकारी के पद पृथक रूप से सृजित होने लगे कई राज्यों ने भारतीय प्रशासनिक सेवा के पदाधिकारियों को भी कुछ समय के लिए प्रखंड विकास पदाधिकारी के पद पर कार्य करना अनिवार्य कर दिया आरंभ में वे कुछ दिनों के प्रशिक्षण के लिए प्रखंडों में भेजे जाते थे।


     प्रखंडों के सर्जन से बहुत सारे और पदों का सृजन करना पड़ा।  जिसके फल स्वरुप बेरोजगारी की समस्या के समाधान में उल्लेखनीय प्रगति हुई ,प्रखंड अंचल में प्रखंड विकास पदाधिकारी सह अंचल अधिकारी के अंतर्गत निम्न के पदाधिकारी और कर्मचारी होते थे।

 

 

 

 

1- चिकित्सा पदाधिकारी

 

2-  कृषि पर्यवेक्षक

 

3-   सहकारिता पर्यवेक्षक

 

4-   शिक्षा पर्यवेक्षक

 

5- पंचायती राज पर्यवेक्षक

 

6- मवेशी चिकित्सा पदाधिकारी

 

7-  कनीय अभियंता

 

8- ग्राम स्तर कार्यकर्ता

 

 

 

इनके अतिरिक्त स्वराज संबंधी कार्यों के लिए स्वराज निरीक्षक तथा कर्मचारी के अलावा कार्यकाल ने कार्यालय के लिए कई सहायक एवं चतुर्थ श्रेणी के कार्यकर्ता नियुक्त हुए नियुक्ति के अवसरों का इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है, कि 1960 के दशक के मध्य प्राया 600000 वी. एल. डब्लू. नियुक्त थे।

 

 

पदाधिकारियों एवं कर्मचारियों के उपर्युक्त सूची को देखने से ही स्पष्ट होगा, कि सामुदायिक विकास कार्यक्रम के अंतर्गत एक ही साथ कई भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में विकास का कार्य हाथ में लिया गया | उदाहरण के लिए चिकित्सा संबंधी सुविधाएं जिसके लिए चिकित्सा पदाधिकारी के अंतर्गत प्रखंड में कई स्थानों पर प्राथमिक चिकित्सा केंद्र खोले गए जहां के कर्मचारी महिला एवं पुरुष गांव वालों के चिकित्सा एवं प्रजनन पर ध्यान रखते थे, कृषि संबंधी विकास पशुओं के रोगों की चिकित्सा अच्छी नस्ल के पशुओं का विकास शिक्षा विकास पंचायत विकास सड़क निर्माण पेयजल की व्यवस्था सहकारिता विकास आदि।

 

 

 

अब हम संक्षेप में पंडित जवाहरलाल नेहरू काल में संचालित पंचवर्षीय योजनाओं का उल्लेख करेंगे |

 

 

         प्रथम पंचवर्षीय योजना

 

यार योजना 1 अप्रैल 1951 में 30 मार्च 1956 की अवधि के लिए पर गठित की गई थी इस योजना में कृषि शिक्षा विद्युत सहायक उद्योग परिवहन स्वास्थ्य पशुपालन के विकास तथा उनमें स्वावलंबन पर बल दिया गया, इस योजना के मुख्य उद्देश्य महत्वपूर्ण थे |

 

क-   देशवासियों के जीवन स्तर को उच्चतर करना

 

ख-  आधारभूत उद्योगों की स्थापना एवं विकास के अंतर्गत भारी मशीन इमारत लोहा सीमेंट खाद आदि का उत्पादन सम्मिलित था , और मशीन बनाने वाले कारखानों भी सम्मिलित है, नेहरू की दृष्टि वैज्ञानिक थे अतः उन्होंने उद्योगों के अधिकाधिक विकास पर बल दिया अब भारी उद्योग के स्थान और भाखड़ा नागल आदि कृषि विकास परियोजना से संबंधित स्थल देश के नए तीर्थ बन गए, यह भारत के अत्यंत हित में था | कि उसके प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में पंडित नेहरू के सदस्य वैज्ञानिक एवं दूर दृष्टि संपन्न राजनेता प्राप्त हुआ |

 

ग-   खाद्यान्नों के उत्पादन में वृद्धि तथा कच्चे माल के उत्पादन जो उद्योगों में काम आता है की वृद्धि दर को बढ़ाना |

 

घ-   परिवहन एवं यातायात के साधनों का निर्माण एवं विकास |

 

च-   आय एवं संपत्ति के वितरण में यथा सत्य समानता लाना |

 

छ-  मुद्रा प्रसार को नियंत्रित रखना |



इस योजना का प्रस्ताव 1 से 2378 करोड रुपए था किंतु प्रथम योजना होने के कारण वह के निर्धारण लक्ष्य को पूरी तरह प्राप्त नहीं किया जा सका यह वह 1960 करोड़ रुपए तक ही संभव हो पाया  |

 

 

फिर भी इस सूचना ने बहुत सीमा तक अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में सफलता प्राप्त की कई क्षेत्रों में लक्ष्य से अधिक की भी प्राप्ति हुई इस योजना की सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि पंडित नेहरू ने निर्देश पर मिश्रित अर्थव्यवस्था पर जोर दिया गया इसका तात्पर्य है ,कि सार्वजनिक क्षेत्र एवं निजी क्षेत्र को साथ-साथ विकसित होने का अवसर प्रदान किया गया देश के त्वरित एवं सर्वांगीण विकास के लिए यह सर्वथा उचित था |

 

 

 तृतीय पंचवर्षीय योजना

 

 

इस योजना का कार्ड 1 अप्रैल 1956 से 31 मार्च 1961 था पंडित नेहरू ने इस बार समाजवादी तरीके के समाज के निर्माण का नया नारा दिया यह पंडित नेहरू का अपने ढंग का समाजवाद था , जिसे समाजवादियों को भी प्रसन्नता हुई उस समय समाजवाद की लहर चल रही थी, भारत में भी एक समाजवादी पार्टी थी | डॉक्टर राम मनोहर लोहिया समाजवादी पार्टी के सर्वे सर्वा ही नहीं नेहरू के कट्टर आलोचक भी थे नेहरू ने अपनी इस नई आर्थिक नीति से समाजवादियों के किले को पराया ध्वस्त कर दिया समाजवादी पार्टी में यह भी आरंभ हुआ तो या पार्टी प्रायः समाप्त होकर ही रही |

 

 

द्ववितीय पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत 4500 करोड रुपए के व्यापार लक्ष्य निर्धारित था | किंतु वर्ष में इससे अधिक ही अर्थात 4672 करोड़ रुपए का हुआ, वह के लक्ष्य की प्राप्ति की दृष्टि से यह योजना पहली योजना से अधिक सफल सिद्ध हुई |

 

             इस योजना के नियम के प्रमुख उद्देश्य थे –

 

(क)   भारी उद्योग के विकास पर अधिकाधिक बल देना ,जिससे और देगी की गति में तीव्रता आ सके |

 

(ख)  बेरोजगारी पर प्रहार और इस हेतु रोजगार के अवसरों को विकसित करना |

 

(ग)  प्रथम योजना की अपेक्षा आय एवं संपत्ति के वितरण में अधिक समानता लाना |

 

(घ)   कुल राष्ट्रीय आय में 25% की वृद्धि करना यह एक प्रशंसनीय लक्ष्य था |

 

 

 

इस योजना की उपलब्धि सराहनीय रही, राष्ट्रीय आय में  यद्यपि 25% वृद्धि का लक्ष्य नहीं प्राप्त हो सका , पर 20% की वृद्धि अवश्य हुई , जिसे प्राप्त करना आसान नहीं था |

 

वास्तविक व्यय –  जैसा कि पहले अंकित किया गया वास्तव प्रास्ताविक वैसे अधिक ही हुआ |

 

सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियां थी, कि औद्योगिक क्षेत्र में आशातीत विस्तार एवं विकास हुआ देश में भारी मशीनों का औजार निर्माण उद्योग हैवी इंडस्ट्रीज और हेवी केमिकल्स के कारखाने खोले गए |

 

निजी क्षेत्र ने भी पर्याप्त विकास किया, इस क्षेत्र के उल्लेखनीय उपलब्धि रही झूठ सीमेंट कागज आदि के सदस्य उद्योगों के लिए मशहूर निर्माण का प्रारंभ और विदिशा में सराहनीय प्रगति |

 

 

              तृतीय पंचवर्षीय योजना

 

 

पंडित नेहरू के काल में क्या योजना 1961 से 1966 वित्तीय वर्ष के लिए घोषित हुई थी  | किंतु दुर्भाग्यवश इस योजना की समाप्ति के प्रायः वर्ष पूर्व ही पंडित जवाहरलाल नेहरू का देहांत हो गया, इस योजना का प्रस्तावित 7500 करोड रुपए था |

योजना के निम्नलिखित उद्देश्य निर्धारित किए गए थे-

 

(क)   राष्ट्र को खाद्यान्न के मामले में स्वावलंबी बनाना उद्योगों के लिए कच्चे माल के उत्पादन में वृद्धि कर उनकी आवश्यकता के अनुकूल बनाना |




(ख)   समग्र राष्ट्रीय आय में 5% की वृद्धि |

 

(ग)   रोजगार के साधनों का विकास करना जिसके लिए छोटे उद्योगों की संख्या 3000 से बढ़ाकर 3500 करना शिक्षित भेज को बेरोजगार रुको थोड़ी पूंजी में ही छोटे उद्योगों की स्थापना करने की व्यवस्था करना |

 

(घ)   आधारभूत उद्योगों का विकास जिनमें बिजली इधन इस्पात और रासायनिक उद्योग आते हैं इस प्रकार करना जिससे अगले 10 वर्षों में भारतीय उद्योगों की आवश्यकताएं देश के संसाधनों से ही पूरी की जा सके |

 

(च)   सिंचित क्षेत्र में वृद्धि के लिए सिंचाई के साधनों को बढ़ाना तथा विद्युत और खनिज उत्पादन में वृद्धि करना एवं परिवहन तथा संचार के क्षेत्र के अधिकाधिक विस्तृत करना |

 

(छ)   प्रथम तो पंचवर्षीय योजनाओं की तरह इस योजना में भी सभी की राय और संपत्ति को यथा साथ सम्मान करना एवं हर किसी को प्रगति समान अवसर प्रदान करना |

 

(ज)   बेरोजगारी हटाने पर इस योजना में विशेष ध्यान दिया गया, या 150 लाख बेरोजगार व्यक्तियों के लिए रोजगार उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने के लिए अस्पतालों की संख्या में वृद्धि तथा शिक्षा के विस्तार के लिए प्राथमिक एवं उच्च विद्यालयों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि करना |

 

यदि इस योजना में वास्तविक व की राशि प्रस्तावित वह की शिप्रा या 10000000 रुपए अधिक हुई है, पर यह व्यवस्था मुद्रा स्थिति के कारण हुआ पंडित नेहरू की मृत्यु के अतिरिक्त 1962 में चीनी आक्रमण तथा 1965 में पाकिस्तान युद्ध के कारण देश की अर्थव्यवस्था चरमरा गई जिसके फलस्वरूप भयानक सूखा पड़ा परिणाम यह हुआ, कि राष्ट्रीय आय की वृद्धि का लक्ष्य पूरा नहीं हो सका | प्रथम 4 वर्षों में यह वृद्धि 2% हुई किंतु अंतिम वर्ष में पाया साढे 5% की कमी आई |

 

 

नेहरू काल में इतनी की योजनाएं चली आगे चौथी पंचवर्षीय योजना तो ठीक-ठाक चली परंतु पांचवी पंचवर्षीय योजना राजनीतिक उथल-पुथल के कारण अपने अवध भी पूर्ण नहीं कर सके अभी दसवीं पंचवर्षीय योजना चल रही है, जो मार्च 2007 में समाप्त होगी जैसा कि पहले कहां गया इन योजनाओं का सूत्रपात पंडित नेहरू की दृष्टि दृष्टि के कारण ही संभव हुआ अतः इनका कुछ विस्तार से उल्लेख आवश्यक था |

 

 

                पंडित  नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) की विदेश नीति

 

 

नेहरू काल की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि इस की विदेश नीति भी थी, नेहरू एक अंतरराष्ट्रीय नेता थे | और भारत को एक सुदृढ़ एवं पूर्णतया स्वावलंबी देश के रूप में विद्युत सबके सामने प्रस्तुत करना चाहते थे, उस समय संपूर्ण विश्व दो गुटों में बंटा हुआ था | ये गुड अमेरिका का था, और दूसरा सोवियत संघ का | भारत नेहरू के नेतृत्व में दो गुटों में से किसी से सम्मिलित नहीं हुआ ,उसने गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई उसकी विदेश नीति इस आधार पर अवस्थित थी नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) का विचार था | कि एशिया एवं अफ्रीका के हाल में स्वतंत्र हुए गरीब देशों को बड़ी शक्तियों वाले सैनिक घुटनों से जुड़ने से लाभ के बदले हानि होगी, इन देशों की समस्याएं गई भी बीमारी तथा निरपेक्षता की थी |   इनके उन्मूलन के लिए युद्ध अथवा तनाव नहीं बल्कि शांति की आवश्यकता थी, पता भारत अपनी निष्पक्ष विदेश नीति के फल स्वरुप अपना मार्ग स्वयं निर्धारण कर सकता था | अतः उचित या अनुचित कदमों की पहचान व स्वयं करने में समर्थ था गुटनिरपेक्ष अथवा निष्पक्ष रहकर ही वह अपने बादशाह पूर्व विश्व के समक्ष रख सकता था, नेहरू ने इस गुटनिरपेक्षता के संबंधों में अपना विचार यू रखा था –

 

जहां तक उपनिवेशवाद फासिज्म और रंगभेद की बुरी शक्तियों या न्यूक्लि न्यूक्लियर बम और अपनों के दमन के प्रश्न है, हम जोरदार रूप से और किसी दुविधा के बिना उनके विरुद्ध हैं हम शीत युद्ध और सैनिक गुटों से दूर ही रहते हैं | एशिया और अफ्रीका के नवीन राष्ट्रीय को शीत युद्ध की मशीन का पूजा बनाने पर विवश करने का हम विरोध करते हैं वैसे भी हम हर उस वस्तु का विरोध करने के के लिए स्वतंत्र है, जिसे हम संसार या अपने लिए गलत या हानिकारक मानते हैं ,और जब कभी आवश्यकता पड़ी हम इस स्वतंत्रता का उपयोग करते हैं |

 

 

भारत के पश्चात स्वतंत्र होने वाले देशों को एक साथ जोड़ने के लिए नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) की विदेश नीति सर्वथा उपयुक्त थी , भारत एक बड़ा राष्ट्र होने के कारण इन देशों का सहज ही मार्ग निर्देश कर सकता था |

 

भारत की गुटनिरपेक्ष अवश्य था, किंतु पंडित नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) ने सोवियत संघ से बिना उसके ग्रुप में सम्मिलित हुए अपनी मित्रता बढ़ाई यह भारत पर स्वाभाविक आक्रमणों के खतरे को ध्यान में रखकर किया गया |दूसरी और नेहरू ने युद्ध का पुरजोर विरोध किया तथा नागासाकी और हिरोशिमा पर छोटे-छोटे गए एटम बम की घटना का संस्मरण कराते हुए उनके लिए युद्ध के प्रति सभी देशों को आगाह किया, उन्होंने शांति निशस्त्रीकरण तथा एटम बम की समाप्ति का उद्देश्य विश्व के समक्ष दृढ़ता से रखा |उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि विभिन्न विचारधाराओं और व्यवस्थाओं वाले देशों के मध्य शांतिपूर्ण सह अस्तित्व आज की आवश्यकता है |


उन्होंने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए पंचशील का सिद्धांत विश्व की नए और पुराने देशों के समक्ष रखा |

 

 

नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) और पंचशील

 

नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) द्वारा उपस्थित जो उस समय काफी लोकप्रिय हुआ के सिद्धांत के 5 शील इस प्रकार थे –

 

1-   एक दूसरे की भौगोलिक अखंडता का सम्मान करना तथा सार्वभौमिकता का भी सम्मान करना |

 

इसका अर्थ यह है, कि सभी स्वतंत्र राष्ट्र अपनी एक सार्वभौमिक शक्ति रखते हैं, जिसके अंतर्गत उनके अंदरूनी मामलों में कोई दूसरा राष्ट्रीयता हस्तक्षेप नहीं कर सकता ना उस पर आक्रमण ही कर सकता है, उसके फल स्वरुप बड़े राष्ट्रीय छोटे राष्ट्रीय का नीति निर्धारण नहीं कर सकते और उन्हें निगल भी नहीं सकते |

 

2-   आक्रमण की नीति का परित्याग

 

यशील एक तरह से प्रथम सेल से ही निकाल निकलता है उसको स्पष्ट रूप से रेखांकित करना इसलिए आवश्यक था कि मजबूत राष्ट्र अभी आसपास के कमजोर राज्यों को हड़पने के लिए तैयार बैठे थे या काल्पनिक बात नहीं है 1948 में ही इंग्लैंड ने इंडोर्स इंडोनेशिया पर आक्रमण कर दिया था |

 

 

3-   एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना |

 

यस शील भी प्रथम सीढ़ी से निकलता है, एक दूसरे की सार्वभौमिकता का सम्मान करने का तात्पर्य है कि एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया जाए पर इस बात को और दृढ़ करने के लिए पंचशील के एक शील रूप में इसे अपनाया गया |

 

4-   समानता एवं आपसी लाभ

 

इस शील के अंतर्गत छोटे बड़े तथा धनी गरीब देशों को एक दूसरे के समान समझना था, इससे कोई भी देश है, भावना से ग्रस्त नहीं होता आपसी लाभ से तात्पर्य यथासंभव एक दूसरे की आर्थिक सहायता से था जिससे पिछड़े देशों का भी विकास संभव हो सके |

 

 

5-   शांतिपूर्ण सह अस्तित्व

 

या पंचशील के सिद्धांतों का केंद्र बिंदु था शांतिपूर्ण तरीके से एक दूसरे के साथ रहना ही या सुनिश्चित कर सकता था| कि एक दूसरे पर ना तो आक्रमण कर सकता था |और न उसके आंतरिक मामलों में दखल दे सकता था |

 

नेहरू (Pandit Jawaharlal nehru) ने चीन जो उस समय भारत का एक बड़ा पड़ोसी था और जिसके आबादी 600000000 अर्थात भारत की जनसंख्या से डेढ़ गुनी थी को पंचशील का सिद्धांत अपनाने पर जोर दिया चीन ने इसे मान भी लिया किंतु दुर्भाग्यवश जैसा कि पहले बताया गया पंचशील की अवमानना करते हुए उसने भारत पर 1962 ई० में आक्रमण बोल दिया |

 

इस आक्रमण और इसके परिणाम की चर्चा पहले की जा चुकी है, इसके जहां केवल यह बताते हुए इस आलेख को समाप्त किया जाता है, कि इस आक्रमण जनित सदमे के फल स्वरुप नेहरू बुरी तरह आश्वस्त हो गए और अंततः मई 1964 में उनका स्वर्गवास हो गया उनका स्वर्गवास होने के साथ-साथ नेहरू युग समाप्त हो गया | |||||****

 

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