Short Essay on PANCHAYATI RAJ – पंचायती राज पर निबंध
The sturdy foundations of Indian democracy have been built with the help of Panchayati Raj institutions. The Panchayats at the village levels are the basic administrative organs of this country. The history of Panchayati Raj institutions dates back to the Rig Vedic times. Many ancient scriptures describe the modus operandi of a Panchayat System.
There were established methods of elections, expulsion and inclusion of the members of the Panchayats. Panchayats were respected in the villages and their opinions and orders were implemented in letter and spirit. Even today, Panchayats remain the sole link of the governing machinery (at block or district levels) with the rural masses.
In 1815, Munro stated that if Panchayats were restrained in their operations, A they could be rendered redundant. On May 15, 1989, the Indian PM, Mr. Rajiv Gandhi, introduced a Constitutional Amendment Bill in the Lok Sabha. This step was taken in order to make Panchayati Raj in India an effective and a truly representative system for protecting the interests of the masses. However, the Bill could not become a law as the Rajya Sabha did not pass it.
It was again introduced in the Parliament by the government of Mr. P.V. Narasimha Rao. It was passed as Seventy-third Constitution Amendment Act (1992) by the Indian Parliament. It came into force en April 24, 1993 and elaborates the constitution of Panchayats. It also describes the procedure of election of the chairperson of Panchayats as well as their powers. It stipulates the proportionate reservation of seats for SCs, STs and women. It also outlines the financial powers, authorities, the constitution of Finance Commission (for the purpose of reviewing their financial positions) and the powers of the State Election Commissioners.
Panchayat is elected through formal elections in a village. The elected representatives are known as Panchas. These Panchas elect a head or Sirpancha after mutual discussions. The tenure of a Panchayat is 5 years. The Panchas and the Sirpanch are required to take decisions regarding the daily and routine operations of the village. A Panchayat sorts out small disputes, gives opinions about land disputes and keeps a tab on the economic and social activities of the village. The district collector and the State Judiciary depend upon the Panchayat for routine, criminal and revenue-related issues. The testimony of Panchayat or the Panchas in a court of law is accepted as well as respected.
The governor of every state appoints a finance commission after every five years. This commission reviews the financial operations of the Panchayats. The Panchayati Raj institutions operate in the union territories of the Indian State as well. However, the provisions of the Seventy-third constitution Amendment Bill are not applicable in some areas of the North-Eastern states and to the Scheduled and Tribal areas.
There are 2.20 lakh village Panchayats, 5,500 Panchayat Samitis and 375 Zila Parishads. The Tenth Five Year Plan has special financial outlays for effecting reforins in the Panchayati System of governance. There are many anomalies in the operation of these institutions. However, it is in the interest of the vast Indian nation to strengthen the Panchayati Raj institutions as the operations of a nation like ours can be carried out efficiently through these institutions only. The experience of Panchayati Raj has been very good in the context of Indian administration. At present, there is no alternative for the Panchayati Raj institutions.
Moreover, the government plans to strengthen Panchayats. This would enable governance of our vast nation on truly democratic lives, No other nation can claim for this unique type of governance at mass level. we have proved that we can manage each and every individual in this vast country without any tears., However, there is always a scope for improvement in this system. Reforms in Panchayati Raj institutions would ensure that justice is meted out to the needy quickly. The government also stands to gain in financial and administrative terms. The responsibility for this herculean task of reforms squarely falls on the state governments as well as on the Central Government. In sum, Panchayati Raj institutions have a bright future in India.
पंचायती राज पर निबंध
भारतीय लोकतंत्र की मजबूत नींव पंचायती राज संस्थाओं पर टिकी है। पंचायतें गांवों के स्तर का एक मूल प्रशासनिक अंग हैं। भारत में पंचायतों का इतिहास अति प्राचीन है। ऋग्वेद काल में भी पंचायतें अस्तित्व में थीं भारत के अनेक प्राचीन धर्मगंथों में पंचायती प्रणाली की कार्य-विधि का वर्णन है । उन दिनों में पंचायतों के चुनाव, पंचायतों से सदस्यों के निष्कासन और उनको पंचायतों में शामिल करने की विधियों का वर्णन मिलता है। गांवों में पंचायतों का सम्मान होता था और उनकी राय अथवा उनके आदेशों का पूरी तरह से पालन होता था आज भी पंचायतें गांव की जनता और शासनतंत्र के बीच मुख्य कड़ी बनी हुई हैं।
1815 में मुनरो ने कहा था कि यदि पंचायतों के क्रिया-कलापों को बंद कर दिया जाये, तो वे निष्प्रयोजन हो जायेंगी 15 मई, 1989, को प्रधान मंत्री श्री राजीव गांधी ने लोकसभा में संविधान संशोधन बिल पेश किया यह कदम इसलिए उठाया गया था कि जनता के हितों की रक्षा के लिए पंचायती राज को एक प्रभावी एवं वास्तविक प्रतिनिधि संस्था का रूप प्रदान किया जाये । किन्तु राज्यसभा ने यह बिल पास नहीं किया। अतः यह बिल कानून का रूप नहीं ले पाया। बाद में प्रधानमंत्री श्री नरसिम्हा राव की सरकार ने दोबारा इस बिल को पेश किया और संसद ने इसे 73वां संविधान सशोधन बिल (1992) के रूप में पारित कर दिया। यह कानून 24 अप्रैल, 1993, से लोगू हुआ। इसमें पंचायतों के गठन का विस्तृत प्रबन्ध है इसमें पंचायतों के सभापतियों के चुनाव की प्रक्रिया और उनके अधिकारों का भी वर्णन है। इस कानून में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और महिलाओं के लिए आनुपातिक संरक्षण की भी व्यवस्था है। इसमें वित्त आयोग (पंचायतों की वित्तीय स्थिति की समीक्षा हेतु) के गठन, उनके अधिकारों एवं शक्तियों की रूपरेखा और राज्य चुनाव आयोग की शक्तियों का समावेश
भी है।
एंचायत का चुनाव गांव में औपचारिक ढंग से होता है । चुने गए प्रतिनिधि पंच कहलाते हैं। पंच लोग अपना सरपंच चुनते हैं। पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष होता है। सरपंच और पंच मिलकर गांव के दैनिक और रोज़मर्रा के कार्यों के बारे में फैसला करते हैं। पंचायतें छोटे-मोटे झगड़े निपटाती हैं, भूमि विवादों के संबंध में अपनी राय देती हैं और गांवों की आर्थिक एवं सामाजिक गतिविधियों पर नज़र रखती हैं। रोजमर्रा के मामलों, राजस्व व अपराध से संबद्ध मु्दों के संबंध में ज़िला कलेक्टर और राज्य की न्यायपालिका पंचायतों पर निर्भर करते हैं । अदालतों में पंचायतों या पंचों के साक्ष्य को सम्मानपूर्वक स्वीकार किया जाता है।
राज्यों के गवर्नर हर पांचवें वर्ष एक वित्त आयोग नियुक्त करते हैं। यह आयोग पंचायतों के वित्तीय आय-व्यय की समीक्षा करता है। भारत के संघशासित प्रदेशों में भी पंचायतें काम करती हैं। परन्तु संविधान के 73वें संशोधन बिल के प्रावधान पूर्वोत्तर के राज्यों के कुछ भागों एवं अनुसूचित व आदिवासी क्षेत्रों पर लागू नहीं होते। वर्तमान पंचवर्षीय योजना पंचायतों के विकास में मील का पत्थर साबित हो सकती है। दसवीं पंचवर्षीय योजना में पंचायतों की शासन प्रणाली में सुधार हेतु धन का विशेष प्रावधान किया गया है। इन संस्थाओं के क्रिया-कलापों में कुछ विसंगतियां हैं। पंचायती राज्य संस्थाओं को सुदृढ़ बनाना भारत के हित में है क्योंकि ऐसे विशाल देश में स्थानीय कार्य इन्हीं संस्थाओं के माध्यम से कारगर तरीके से सम्पन्न हो सकते हैं।
भारत की शासन प्रणाली के सम्बन्ध में पंचायती राज प्रणाली बहुत कारगर सिद्ध हुई है। आज के संदर्भ में पंचायती राज संस्थाओं का कोई विकल्प नहीं है । इसके अलावा, सरकार पंचायतों को और सुदृढ़ करने की योजना बना रही है। इस प्रणाली के चलते हमारे विशाल देश पर शासन पूर्णतया लोकतांत्रिक रूप से हो पायेगा। अन्य कोई भी देश जन स्तर पर इस प्रकार की शासन प्रणाली के क्रियान्वित होने का दावा नहीं कर सकता। हमने ये सिद्ध कर दिया है कि हम इस विशाल देश मे प्रत्येक व्यक्ति का बिना किसी दुख के प्रबन्धन कर सकते हैं । तथापि, इस प्रणाली में सुधारों से यह बात सुनिश्चित हो जायेगी कि जरूरतमंदों को न्याय उचित समय पर मिले ।
सरकार को भी शासनतंत्र के प्रबंधन और वित्तीय पक्षों के लिहाज़ से फायदा होगा। इस अत्याधिक कठिन कार्य को अंजाम देने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों एवं केन्द्र सरकार की है। संक्षेप में, भारत में पंचायती राज संस्थाओं का भविष्य बहुत उज्जवल है ।
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