अर्थशास्त्र की आधुनिक परिभाषाएँ | Modern Definitions of Economics

अर्थशास्त्र एवं भारतीय अर्थव्यवस्था | Modern Definitions of Economics

अर्थशास्त्र की आधुनिक परिभाषाएँ :- अर्थशास्त्र समाज विज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति और राष्ट्र के स्तर पर उत्पादन, वितरण और वस्तुओं के उपभोग से सम्बंधित अर्थव्यवस्था का प्रबन्धन किया जाता है।

 

अर्थशास्त्र की सबसे पहले परिभाषा एडम स्मिथ ने (1776 में) इस प्रकार दी है :- अर्थशास्त्र वह शास्त्र है जिसके अन्तर्गत राष्ट्रीय सम्पत्ति की प्रकृति और उसके कारणों पर विचार किया जाता है। इस शास्त्र का नाम उसने राजनीतिक अर्थव्यवस्था दिया था। जे. बी. से ने ( 1803 में) इसे वह विज्ञान बताया जो धन के उत्पादन, वितरण और उपभोग का अध्ययन करे।



 

एल्फ्रेड मार्शल ने (1890 में) अपनी पुस्तक ‘अर्थशास्त्र के सिद्धान्त’ में माइक्रो इकनॉमिक्स को भी सम्मिलित किया और अर्थशास्त्र को वह विज्ञान बताया जिसके अन्तर्गत मनुष्य और मनुष्य के व्यवसायों का अध्ययन किया जाता है।

 

लियो नल रोबिन्स (1932 में) ने इसे मानव व्यवहार, उसके साधन तथा उसके अभावों के अध्ययन का शास्त्र बताया।

 

अर्थशास्त्र की शाखाएँ

 

अर्थशास्त्र की दो प्रमुख शाखाएँ हैं :-

 

1). वैयक्तिक अर्थव्यवस्था – इसके अन्तर्गत व्यक्तिगत स्तर पर अर्थव्यवस्था के मूलभूत सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाता है। व्यक्तिगत स्तर से तात्पर्य व्यक्ति या फर्म है। व्यक्ति अथवा फर्म के सन्दर्भ में बाजार की स्थिति, आय वितरण, विक्रय, वित्त प्रबंधन आदि विषयों पर विचार किया जाता है।

 

2), राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था – इसके अन्तर्गत राष्ट्रीय स्तर पर कुल मिला कर आय, व्यय, उत्पादन, प्रति व्यक्ति आय, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वाणिज्य, बेरोजगारी, मुद्रा स्फीति, महँगाई, राष्ट्रीय लाभ – हानि, विदेशी मुद्रा, बैंकिंग अर्थनीति आदि विषयों का अध्ययन किया जाता है।




वैयक्तिक अर्थव्यवस्था के प्रभावी तत्त्व

 

1) बाजार की स्थिति – वैयक्तिक अर्थव्यवस्था में बाजार एक महत्त्वपूर्ण प्रभावी तत्त्व है। इसके अन्तर्गत क्रेताओं और विक्रेताओं का अन्तः सम्बंध महत्त्वपूर्ण है। बाजार की माँग और उत्पादकों द्वारा आपूर्ति का परस्पर सम्बन्ध अर्थ – व्यवस्था को प्रभावित करता है। उत्पादकों और विक्रेताओं में परस्पार स्पर्धा और एकाधिकार की भावना बाजार की स्थिति और वस्तुओं के मूल्य में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाते हैं।

 

2). उत्पादन, मूल्य एवं क्षमता – बाजार की माँग के अनुसार उत्पादन करना अर्थशास्त्र का प्रमुख सिद्धान्त है। यदि आवश्यकता से कम उत्पादन होगा तो आपूर्ति की कमी के चलते बस्तुओं का मूल्य स्वतः ही ऊँचा होगा। आवश्यकता से अधिक उत्पादन होने पर वस्तुओं का मूल्य गिर जाएगा।

 

3 ) विशेषज्ञता – बाजार में एक वस्तु की माँग के लिए विविध कम्पनियों के द्वारा जो उत्पादन किया जाता है उसमें उत्पाद की गुणवत्ता और उत्पादन की विशेषज्ञता महत्त्वपूर्ण हैं। उच्च तकनीक से बने हुए उत्पाद बाजार में ऊँची कीमत पर बिकते हैं और उनकी माँग सदा बनी रहती है।

4 ) आपूर्ति एवं माँग – बाजार में उस वस्तु को उपलब्ध कराना आपूर्ति कहलाता है। आपूर्ति एवं माँग का सिद्धान्त अर्थशास्त्र का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। इसी के आधार पर वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि या कमी का निर्धारण होता है। लाभ अथवा हानि की स्थिति माँग और आपूर्ति की स्थिति पर निर्भर करती है।

 

5 ) विज्ञापन – द्वारा वस्तु का ज्ञान उपभोक्ता को होता है। विज्ञापन के अभाव में अच्छी गुणवत्ता की वस्तुएँ भी बाजार में नहीं बिक पाती जबकि प्रचार के बल पर निम्न कोटि के उत्पाद बाजार में वस्तु की आवश्यकता को माँग कहते हैं और उत्पादन की बिक्री में विज्ञापन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। विज्ञापन के भी बिक जाते हैं।

राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के प्रभावी तत्त्व

1). राष्ट्रीय आय – राष्ट्रीय आय से तात्पर्य वह आय है जो राष्ट्र के सभी उत्पादों और सेवाओं द्वारा अर्जित की जाती है। यह व्यक्ति, निजी फर्मों और सरकारी फर्मों द्वारा उपार्जित आय का कुल योग होती है। इसी के आधार पर जनसंख्या के अनुपात से प्रति व्यक्ति आय का आकलन किया जाता है।
2). वृद्धि – अर्थव्यवस्था में वृद्धि का आकलन कुल राष्ट्रीय उत्पादन के आधार पर किया जाता है।
3 ). अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार – राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के विकास में विदेशी व्यापार एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसमें आयात – निर्यात, विदेशी मुद्रा एवं स्वदेशी मुद्रा का दूसरे देशों की मुद्रा की तुलना में घटना या बढ़ना आदि विषय सम्मिलित हैं।

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