बौद्ध धर्म की प्रमुख विशेषताएं और संस्थापक कोन है

 बौद्ध धर्म की प्रमुख विशेषताएं और संस्थापक कोन है

 

 

बौद्ध धर्म में अनेक प्रकार की परम्पराएँ, विचार, अनुभूतियाँ और दर्शन मिले हुए हैं जो मुख्य रूप से शाक्य कुल के नरेश शुद्धोदन के पुत्र राजकुमार सिद्धार्थ से सम्बंध रखते हैं।  राजकुमार सिद्धार्थ के मन में उठने वाली अनेक जिज्ञासाओं ने साधना का रूप धारण किया और ये साधनाएँ उन्होंने उपदेश के रूप में प्रचारित की। साधना के द्वारा सिद्धार्थ बुद्ध बने। बुद्ध शब्द का अर्थ है – “जिसे ज्ञान प्राप्त हो गया – है।”


2) बौद्ध धर्म


बौद्ध धर्म की दो शाखाएँ प्रसिद्ध हैं –

 

1). थेरवाद (बड़े लोगों का सम्प्रदाय),

2). महायान (महान् रथ)।

 

थेरवाद का प्रसार श्रीलंका एवं दक्षिण पूर्व एशिया तक हुआ तथा महायान का प्रसार पूरे पूर्वी एशिया में हुआ जिसमें पवित्र भूमि की परम्पराओं का समावेश था।  कुछ विद्वानों ने बौद्ध धर्म की एक तीसरी शाखा वज्रयान के रूप में स्वीकार की है। बौद्ध धर्म की थेरवाद और महायान दोनों ही शाखाएँ एशिया तथा उससे आगे सारे संसार में फैलीं, लोक प्रिय हुई। आज संसार के सभी भागों में बुद्ध धर्म के अनुयायी पाये जाते है।

 

गौतम बुद्ध का जन्म 

 

सिद्धार्थ का जन्म शुद्धोदन राजा के घर कपिलवस्तु (नेपाल में) में 563 बी. सी. में हुआ।  शुद्धोदन शाक्य वंश के राजा थे जिन्होंने अपने पुत्र को बचपन से के ही बड़े वैभव – ऐश्वर्य के ठाट – बाट में पाला और की एक भी कठिनाई सामने न आने दी। उनका विवाह एक सुन्दर कन्या यशोधरा से किया गया और उनके घर एक पुत्र (राहुल) ने जन्म लिया।

 

यत्नपूर्वक पिता के द्वारा वैभव में लालन पालन होने पर भी एक बार सिद्धार्थ ने मार्ग में जाते हुए एक वृद्ध, एक रोगी और एक मृत व्यक्ति को देखा और इसके साथ ही उसके मन में जिज्ञासाओं का झंझावात चलने लगा।  एक साधु के मुख पर उज्ज्वल मुस्कान देख कर उसने घर छोड़ने का निश्चय किया। विश्व को पीड़ा मुक्त अमृत तत्त्व खोज कर देने का बीड़ा उठा कर राजकुमार सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की आयु में (सोती हुए युवती पत्नी और बालक पुत्र का मोह बंधन बलपूर्वक काट कर) में ( घर छोड़ दिया। उन्होंने दो विद्वान् साधुओं से दीक्षा लेकर धर्म – साधना की परन्तु उन्हें लगा कि वे अन्तिम सत्य को नहीं पा सके हैं।

 

छह (6) वर्ष तक कठोर साधना – प्यास पर नियंत्रण) करने के पश्चात् भी उन्हें सफलता नहीं मिली।  पूर्ण सत्य को जानने के लिए सिद्धार्थ ने गया में एक पीपल के वृक्ष (गया में बोधि वृक्ष के रूप में माना जाता है) के नीचे पूर्व की ओर मुख करके समाधि लगाई, वे ध्यान (भूख की अवस्था में बैठे थे। गहरे ध्यान के क्षणों में उन्हें एक प्रकाश दिखाई पड़ा, उन्हें बुद्ध कह कर संबोधित किया गया उन्हें लगा कि उन्होंने उस पवित्र ज्ञान को पा लिया है जिसकी वे लम्बे काल से खोज कर रहे थे। फिर इस ज्ञान को महात्मा बुद्ध ने अपने निकट साधना कर रहे पाँच शिष्यों को प्रदान किया।

‘बोध’ (ज्ञान) को प्राप्त करके महात्मा बुद्ध ने उसका प्रचार करने के लिए यात्राएँ की। वे सारनाथ गये जहाँ उन्होंने ‘धर्म चक्र’ का प्रवर्तन किया। महात्मा बुद्ध ने अपने धर्मोपदेश को जनहित में जनसमुदाय का जीवन सुखमय बनाने के लिए लगाया।  उन्होंने इसे मध्यम मार्ग की संज्ञा दी। अति भोगवाद और अति वैराग्यवाद के बीच सन्तुलित जीवन शैली को ही उन्होंने मध्यम मार्ग माना। महात्मा बुद्ध के उपदेश ‘सुत्त पिटक’ और ‘विनय पिटक’ ग्रन्थों में संग्रहित हैं।

 

महात्मा बुद्ध ने संघ की स्थापना

 

महात्मा बुद्ध ने संघ की स्थापना की, शिष्य बनाये और निरन्तर 45 (पैंतालिस) वर्ष तक घूम – घूम कर ध र्म प्रचार किया। बुद्ध धर्म में दीक्षित होते हुए व्यक्ति तीन प्रतिज्ञाएँ करता था। 

 

1). बुद्धं शरणं गच्छामि,

2). धम्म शरणं गच्छामि

3). संघ शरणं गच्छामि।

 

अस्सी वर्ष की आयु पूर्ण करके महात्मा बुद्ध ने कुशीनारा स्थान पर निर्वाण प्राप्त किया। बुद्ध की मुख्य शिक्षाएँ बुद्ध के अनुसार तीन चिरन्तन सत्य हैं। 

 

1) संसार में कुछ भी नष्ट नहीं होता। केवल रूप परिवर्तन होता है।  पदार्थ शक्ति में और शक्ति पदार्थ में बदलती रहती है। प्रकृति के अन्य जीव, पेड़ – पौधे, अन्य मनुष्यों की तरह होते हैं। अतः किसी को मारना अपने को मारने के समान है।  

2). प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है।

3). कारण और परिणाम का नियम महात्मा बुद्ध ने तीसरा सत्य यह खोजा कि मनुष्य (या कोई भी प्राणी) जो कार्य करता हैं, अच्छा या बुरा उसका परिणाम उसे उसी रूप में मिलता है। 

चार आर्य सत्य हैं :-

 

1). दु:ख सभी प्राणियों के लिए एक समान है।

2). हम अपने दुःखों का कारण स्वयं ही हैं।

3). दुखों को उनका कारण मिटा कर दूर किया जा सकता है।

4). जीवन के दु:खों से मुक्ति का उपाय बुद्धत्व प्राप्त करना है।

 

अष्टांग मार्ग का उपदेशः

 

1). सम्यक् दृष्टि

2). सम्यक् विचार

3). सम्यक् वाणी

4). सम्यक् व्यवहार

5). सम्यक् जीविका

6). सम्यक् प्रयास

7). सम्यक् अवबोध

8) सम्यक् ध्यान

 

बुद्ध धर्म की सभाएँ: 


धर्म महासभा (483 बी. सी.) बुद्ध धर्म के सभी प्रामाणिक साम्प्रदायिक साक्ष्यों के अनुसार महात्मा बुद्ध के निर्वाण के तुरन्त बाद लगभग 483 ई. पू. में पहली महासभा राजग्रह (वर्तमान राजगीर) में भिक्षु महाकश्यप की अध्यक्षता में राजा अजातशत्रु ने आयोजित की।  महासभा का उद्देश्य बुद्ध की शिक्षाओं को (सुत्रों को) तथा जीवन सिद्धान्तों (विनय) को संग्रहीत करना था। प्रथम बुद्ध – द्वितीय बुद्ध धर्म सभा – महात्मा बुद्ध के निर्वाण के लगभग 100 या 110 वर्ष पश्चात् यश नामक एक बौद्ध भिक्षु ने वैशाली में नियम पालन में आई शिथिलता को दूर करने के लिए महासभा बुलाई जिसमें 700 (सात सौ) बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया। 

 

तीसरी बुद्ध धर्म सभा थेरवाद के व्याख्याकारों और अन्य धार्मिक ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर विद्वान् कहते हैं कि बुद्ध धर्म की तीसरी सभा मौर्य सम्राट अशोक ने पाटलीपुत्र (आधुनिक पटना) में बुलाई थी जिसकी अध्यक्षता मौगलीपुत्र तिस्स ने की थी।  इस सभा का उद्देश्य धर्म का व्यापक प्रसार करना और उसे विसंगतियों से बचाना था। कुछ लोग अवसरवादिता का लाभ उठा कर संघ में इसलिए प्रवेश करते थे क्योंकि बौद्ध संघ को राजकीय सहायता प्राप्त थी। इससे बुद्ध धर्म के प्रचार प्रसार को क्रान्तिकारी रूप से संशोधित करने की आवश्यकता पड़ी। सम्राट अशोक ने बुद्ध धर्म के उपदेशों को शिलाओं पर खुदवाया जो आज भी उपलब्ध हैं।  बौद्ध धर्म का सबसे महत्त्वपूर्ण मिशन किया महेन्द्र ने जिसने श्रीलंका में जाकर बुद्ध की शिक्षाओं का प्रचार प्रसार किया जो आज तक भी श्रीलंका में थेरावाद नाम से प्रचलित है।

दो चौथी बौद्ध धर्म सभाएँ

 

दो चौथी बौद्ध धर्म – सभाएँ – थेरावाद को लेकर बौद्ध धर्म की चौथी सभा ई. पू. की अन्तिम शताब्दी में ताम्रपर्णी (श्रीलंका) में आलोक लेन (आज का अलु विहार) में जुड़ी। उस समय राजा थे वाताग्मनी – अजय। दूसरी बार बौद्ध धर्म सम्बंधिनी चौथी सभा कुषाणवंशी राजा कनिष्क द्वारा जालंधर अथवा कश्मीर में बुलाई गई। यह सभा लगभग 100 (सौ) वर्ष के अन्तराल बाद बुलाई गई थी जिसमें राजा कनिष्क ने सर्वस्तिवाद की परम्परा पर विचार करने के लिए कश्मीर में 500 (पाँच सौ) भिक्षुओं को बुलाया था।

 

इस सभा के अध्यक्ष वसुमित्र थे।  इस सभा का उद्देश्य सर्वास्तिवादी अभिधर्म सम्बंधी मूल ग्रन्थों को व्यवस्थित रूप प्रदान करना था जो प्राचीन प्राकृत आदि भाषाओं (जैसे गांधारी जो कश्मीरी लिपि में थी) को संस्कृत भाषा में रूपान्तरित करने का कार्य करना था। बौद्ध धर्म में अनेक शाखा विभाजन मिलते हैं परन्तु –

 

बौद्ध धर्म की तीन शाखाएँ प्रमुखत्व  हैं –

 

1). थेरावाद (पूर्वजों का मार्ग)

2). महायान (बड़ा रथ)

3). वज्रयान (हीरे का रथ)

 

बौद्ध धर्म की थेरावाद और महायान शाखा का ईसा की पहली शताब्दी में अपने अलग ढंग से खूब प्रचार हुआ। फिर महायान शाखा का अनेक सम्प्रदायों में विभाजन हुआ। वज्रयान की अनेक शाखाओं का प्रचार तिब्बत और नेपाल में हुआ। 

 


बुद्ध धर्म का प्राचीन साहित्य

 


त्रिपटक :- “त्रिपिटक” बुद्ध धर्म का प्राचीनतम साहित्य है जिसकी रचना ईसा की तीसरी शताब्दी के आस पास हुई। यह रचना पाली भाषा में मिलती है। इसमें महात्मा बुद्ध के मौखिक रूप में दिए गए उपदेशों का लिखित साहित्यिक रूप विद्यमान है।  तीन पिटक का अर्थ है – पिटारी या पेटियाँ। इस साहित्य का मूल रूप लम्बी पत्तियों – पर (जिन्हें एक तरफ से सिलाई करके जोड़ा गया है) मिलता है और आज के युग में यह 45 (पैंतालीस) वोल्यूम (खण्डों) में प्रकाशित रूप में मिलता है। तीन पिटकों के वर्णन विषय अलग अलग हैं।  “विनय पिटक” में उन नियमों का वर्णन किया गया है जिनसे एक साधक अपना जीवन दिव्य साधना करते हुए बिता सकता है।

 

“सूत्र पिटक” में महात्मा बुद्ध की प्रार्थनाएँ और धार्मिक प्रवचनों को संग्रहित किया गया है।  “अभिधर्म पिटक” में विषयों की विविधता है। कुछ महात्मा बुद्ध के जीवन काल की प्रमुख घटनाएँ हैं, कुछ उनके द्वारा दिये गए दृष्टान्त हैं कुछ धर्म कथाएँ तथा कहीं – कहीं बुद्ध की जीवन शैली की चर्चा उपलब्ध होती है। महात्मा बुद्ध के जीवन की दिनचर्या पर भी प्रकाश डालने के कारण “अभिधर्म पिटकअपना विशेष महत्त्व रखता है। यह त्रिपटक साहित्य थेरवाद की आधारभूत आत्मा माना जाता है।

 

नागार्जुन


नागार्जुन बुद्ध धर्म के सूत्रों को व्यवस्थित साहित्य का रूप देने वाला पहला लेखक नागार्जुन था। नागार्जुन ने बौद्ध धर्म की महायान शाखा को सिद्धान्त का आधार दिया और मध्यम मार्ग को स्पष्ट करके अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय दिया। वज्रयानी बौद्ध – साहित्य – वज्रयान शाखा में बौद्ध साहित्य के महायान सूत्रों को तो त महत्त्व मिला पर “पिटक” साहित्य को नहीं।

 

यह सम्भवतः इसलिए हुआ कि “त्रिपिटक” साहित्य का सबसे पहले तिब्बती भाषा में अनुवाद हुआ। वज्रयानी साहित्य में मुख्यतः नागार्जुन और उनके अनुयायियों की रचनाएँ मिलती हैं और कुछ तंत्र साहित्य भी इसमें उपलब्ध होता है। सारे बौद्ध साहित्य पर टीकाएँ भी वज्रयानी बौद्ध साधुओं द्वारा रची गई है। 

 

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