Bharat Ratna Dr. Bidhan Chandra Roy Biography in Hindi - भारत रत्न डॉ बिधान चंद्र राय का जीवन परिचय

Dr. Bidhan Chandra Roy Biography in Hindi – डॉ बिधान चंद्र राय का जीवन परिचय

Dr. Bidhan Chandra Roy Biography


 

भारत का स्वतंत्रता संग्राम जिस प्रकार अग्रणी वकीलों और राजनीतिज्ञों के योगदान से चला वहां देश के कुछ योग्यतम डॉक्टरों तथा अन्य चिकित्सकों के सहयोग से भी वंचित नहीं रहा डॉक्टर खान साहब हकीम अजमल खान, अन्सारी, डॉक्टर कर्वे और डॉक्टर सुशीला नायर के नाम इनमें प्रमुख है परंतु डॉ बिधान चंद्र राय का नाम सबसे ऊंचा है | क्योंकि उनकी प्रतिमा बहुमुखी थी और देशभक्ति तो उन्हें विरासत में ही मिली थी |

दक्षिण बंगाल के इतिहास प्रसिद्ध डॉ बिधान चंद्र राय प्रतिपादित के वंशज थे | राजा प्रताप ने आजीवन मुगलों से युद्ध किया | लेकिन वह जहांगीर की शक्ति के आगे टिक न सके और बंदी बना लिए गए, मुगल सैनिकों ने बादशाह के सामने पेश करने ले जा रहे थे | लेकिन स्वतंत्र प्रेमी प्रतिपादित ने रास्ते में ही काशी में आत्महत्या कर ली |

 

इस परिवार का वैभव डॉक्टर राय के पिता प्रकाश चंद्र राय के समय तक लगभग समाप्त हो चुका था | अत: उनकी शिक्षा बड़ी मुश्किल से ही हो पाई नौकरी भी अच्छी ना थी | उनका विवाह कामिनी देवी के साथ हो चुका था | इन दोनों को दो पुत्रियां और 3 पुत्र थे | डॉ बिधान चंद्र राय इनमें सबसे छोटे थे | उनका जन्म 1 जुलाई, 1882 को पटना के बांकीपुर स्थान में हुआ था |



Dr. Bidhan Chandra Roy Biography


डॉक्टर राय के पिता बड़े ही धार्मिक प्रवृत्ति के आदमी थे वे सहायक मजिस्ट्रेट तो हो गए पर अपने उदार स्वभाव के कारण कभी भी पैसा जुटाना पाए। राय की माता भी उसी तरह धर्म परायण थी वह पहले निरीक्षण थी पर अपने जितने से अंग्रेजी भी पड़ी बाद में उन्होंने पटना में लड़कियों का एक स्कूल भी खोला था आगे चलकर तो यह बड़ा विद्यालय बन गया था राय की आयु 14 वर्ष की थी तभी उनका उनकी माता का देहांत हो गया उन्होंने माता-पिता से त्याग परिश्रम और सेवा का पाठ सीखा |

आदर्श माता-पिता की संतान होने के कारण विधान चंद्र राय ने बचपन से ही यह समझ आ गई कि धन का असली उपयोग अपना सुख और भोग नहीं दूसरों की सहायता है |

बचपन में आप दूसरे छात्रों की तरह एक साधारण छात्र अध्यापकों को झांसा देकर भाग जाने में आपको बड़ा मजा आता था। केवल पास होने पर ही अपने को धन्य समझते थे। कक्षा में प्रथम आने या कुछ विशेष कर पाने का कभी कोई विचार उनके मन में उठता ही नहीं था |

 

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बांकीपुर कॉलेज पटना से उन्होंने बीए की परीक्षा पास की और वह कोलकाता आए कोलकाता में उन्हें चिढ़ थी। उन्होंने इंजीनियर या डॉक्टर बनने की सोंची | दोनों कॉलेजों में भर्ती की अर्जी भेजी उन्हें मेडिकल कॉलेज से भर्ती का पत्र पहले मिला और इसी कारण व 1901 में वहां दाखिल हो गए | मेडिकल कॉलेज के सारे अध्याय अध्ययन काल में वह केवल ₹5 की एक पुस्तक की खरीद पाए। पुस्तके व पुस्तकालय व मित्रों से लेकर पढ़ते थे | इसी समय उनके पिता रिटायर हुए, राय के दोनों बड़े भाई इंग्लैंड में थे और उन्हें पैसा भेजना आवश्यक था  इस कारण पिता विधान चंद्र राय को पर्याप्त धन देने में असमर्थ थे | अपनी पढ़ाई का खर्च छात्रवृत्ति से और अस्पताल में वार्ड बॉय का काम करके चलाया था | आपने हमेशा मुसीबतों का डटकर सामना किया |


मेडिकल कॉलेज के वापस प्रिंसिपल कर्नल ल्यूकिस की उन पर विशेष कृपा थी | डॉक्टर राय का कहना था , कर्नल ल्यूकिस मुझसे आत्म सम्मान और महत्वाकांक्षा जागृत की और मुझमें सेवा त्याग और कष्ट सहन करने की भावना पैदा की। 



डॉक्टरी परीक्षा पास करने के बाद सन उन्नीस सौ छह में विधान चंद्र राय की प्रांतीय चिकित्सा सेवा में नियुक्ति हो गई और वह कर्नल डिफेंस में के सहायक के रूप में काम करने लगे उस समय भारत के चिकित्सा क्षेत्र में इंडियन मेडिकल सर्विस का बोलबाला था यह परीक्षा आईसीएस के समक्ष थी और इसके अधिकतर अधिकारी अंग्रेज होते थे बड़े बड़े पद पर उन्हीं को मिलते थे | और अधिक योग्यता व अनुभव प्राप्त प्रांतीय सेवा के अधिकारियों को इन के नीचे काम करना पड़ता था डॉक्टर को कई बार अंग्रेज अधिकारियों से टक्कर लेने पड़े अपनी योग्यता और डरता तथा निडरता तथा कर्नल ल्यूकिस के सहयोग से कारण वह सदैव सफल रहे |



मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई के दिनों की बात है |

एक दिन कॉलेज में प्राध्यापक कर्नल पिक बुरहान की मोटर एक ट्रक से टकरा गई वहीं पर विधान चंद्र राय खड़े थे कर्नल पर अपने वक्त पड़ने पर उनसे अपने पक्ष में गवाही देने को कहा उन्होंने झूठ बोलने से माफ़ साफ इनकार कर दिया कन्नड़ पर अपने बदले की भावना से अपने विषय में राय को एक भी अंक नहीं दिया , उस वर्ष अन्य विषयों में अच्छे अंक होने पर भी वे फेल हो गए | आगे चलकर कर्नल पर उनकी अद्भुत योग्यताएं ईमानदारी और सच्चाई को देखकर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने श्री राय से अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी , और अपने विषय में उन्हें ज्यादा अंक भी दिए |


कोलकाता के मेडिकल कॉलेज से एम.बी. की परीक्षा पास करके आप सन् 1980 में इंग्लैंड के वहां के ” सेंट बर्नोल लोम्यूज ” प्रवेश के लिए आपको डीन के पास ना जाने कितने चक्कर लगाने पड़े | पर तो हार नहीं मानी | अंत में आप को प्रवेश मिल ही गया | बर्नोल लोम्यूज अस्पताल में आप पूरी शक्ति के साथ अपने काम में जुट गए | प्रातः 9:30 बजे से लेकर सायं 4:30 बजे तक तत्कालीन होकर मृत शरीरों को का ऑपरेशन करने का अभ्यास करते रहते थे |

 

छुट्टियों में भी यही क्रम चलता चला करता था | पूरी लगन से पढ़ाई करके आपने वहां का पर अपना विशेष स्थान बना लिया बाद में वहां के दिन ने अपनी गलती के लिए इन शब्दों में अफसोस प्रकट किया आज लगता है| मैंने उस दिन अपराध किया था तुम्हें दिन प्रतिदिन लौटता रहा मैं हे मेरे तरुण मित्र तुम मेरे उन दिनों के व्यवहार से प्रश्न प्रश्न निश्चित होकर क्षमा कर दो मैं तुम्हें वचन देता हूं कि मैं तुम्हारे देश के किसी भी युवक को अब वापस नहीं करूंगा |

 

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भारत लौटकर डॉक्टर राय पुनः प्रांतीय चिकित्सा सेवा में सम्मिलित हो गए धीरे-धीरे अच्छे चिकित्सक के रूप में उनका नाम फैलने लगा | अपने मृदुल स्वभाव से उन्होंने सभी का मन जीत लिया और उनका यश दूर-दूर तक फैल गया | इतना ही नहीं उनके सफलता के विषय में अनेक प्रकार की कहानियां आम जनता में फैल गई कितना ही असाध्य रोग होता रोगी को चैन पड़ता और वह ठीक होकर ही घर लौटता रोगी का आधार ओक तो उनके मृदुल स्वभाव और स्नेह युक्त व्यवहार से ही दूर भाग जाता था उन्होंने सच्चे दिल से मानवता की सेवा की सरकारी नौकरी से उनको छुटकारा भी अचानक ही मिल गया एक दिन उन्हें बताया गया कि कोलकाता विश्वविद्यालय के कार माइकेल मेडिकल कॉलेज कोशी शर्त पर मान्यता देना स्वीकार किया गया कि डॉक्टर आए | इसमें प्राध्यापक का पद स्वीकार करें इस संस्था की स्थापना राष्ट्रीय विचार को के लोगों ने की थी डॉक्टर राय ने बगैर किसी हिचकिचाहट के सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया | सन् 1919 ई० में इसने कॉलेज में सम्मिलित हुए , आजीवन इस संस्था में संबंध रहे |




उन दिनों देश गुलामी की बेड़ियों में झगड़ा हुआ था

 


था | सर सुरेंद्रनाथ श्री अरविंद देशबंधु चितरंजन दास आजादी के परवाने बनकर स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े थे | आपका मन भी अंग्रेजी सरकार के अन्याय को नहीं सह सका और आप भी तन मन धन से इस स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े |


सन् 1923 में कांग्रेसी चुनाव लड़ रही थी | बंगाल में सबसे महत्वपूर्ण चुनाव कोलकाता नगर में था वहां से खड़े थे सुर सर सुरेंद्रनाथ बनर्जी जो किसी समय राष्ट्रीय नेता और बंगाल के बेताज के बादशाह समझे जाते थे लेकिन कांग्रेस के निर्णय के विरुद्ध उन्होंने प्रांतीय शासन में मंत्री पद स्वीकार किया था |

 

इस कारण वह अब पहले जितने लोकप्रिय ना रह गए थे | फिर भी उनका मुकाबला करना आसान ना था उनके मुकाबले के लिए कांग्रेस के पास कोई मजबूत उम्मीदवार ना था | डॉक्टर राय ने यहीं से चुनाव लड़ने का फैसला किया देश बंधु दास और अन्य कांग्रेसी नेताओं ने डॉक्टर राय का समर्थन किया डॉक्टर सुरेंद्र नाथ को लगभग 3500 वोटों से हराया |


इसके बाद तो डॉक्टर राय के लिए कांग्रेसी अथवा राजनीति से अलग रह पाना कठिन था | और वह रहे ही नहीं 1931- 32 में वह कोलकाता के मेयर चुने गए | और अब तो उन पर नगर की स्थिति सुधारने का भी सारा बोझ आ पड़ा | जिसे उन्होंने बड़ी कुशलता पूर्वक संभाला वह सदा इस बात के लिए यत्न छील रहे, कि ब्रिटिश सरकार कोलकाता कारपोरेशन के मामलों में दखल ना दें | उन्होंने एक बार कारपोरेशन के सदस्यों से कहा था |

 

यह मत समझिए कि स्वतंत्रता के बाद स्वायत्तता का आप का संघर्ष समाप्त हो जाएगा | तब विधानसभा और महानगर निगम दोनों यह दावा करेंगे कि वे जनता के असली प्रतिनिधि हैं | दोनों में संघर्ष अवश्य होगा, विधानसभा के पास व्यापक अधिकार रहोगे वह निगम के अधिकार हड़प अपना जाएगी, ऐसी परिस्थितियां में निगम के किसी सदस्य से अगर कानून द्वारा दिए गए अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए लड़ने की हिम्मत नहीं है , तो उसे निगम का सदस्य कहलाने का भी कोई हक नहीं है |


अब तो वह अखिल भारतीय स्तर के व्यक्ति बन चुके थे | और देश बंधु दास की मृत्यु के बाद तो वह बंगाल के प्रतीक बन गए थे | गांधीजी मोतीलाल नेहरू का अन्य लोगों से इतना इनका परिचय हो चुका था |

 

कांग्रेस के अधिवेशन में वह भाग लेने लगे थे | 1926 में कोलकाता अधिवेशन के समय स्वागत समिति के मंत्री थे बंगाल में सत्याग्रह आंदोलन का संचालन इनके हाथ में ही था इन्हीं दिनों उन्हें गिरफ्तार किया गया और 6 महीने की सजा हुई | 1934 में वह बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष भी चुने गए |


बंगाल सदा ही संकटों का सामना कर करता आया है जब मुस्लिम लीग ने वहां सांप्रदायिक तनाव बढ़ाकर लोगों को मौत के घाट उतारना स्वीकार किया तो डॉक्टर आए ,ना बैठ सकें | उन्होंने अपनी जान की परवाह ना कर लोगों की सहायता आरंभ की | और 2 दिन में लगभग डेढ़ 2000 व्रत व्यक्तियों के तार लाशों का दाह संस्कार किया | और जब देश स्वतंत्र हुआ तो फिर वही समस्या सामने आई |

 

विभाजन से बंगाल को बहुत हानि उठानी पड़ी डॉक्टर पी सी घोष ने नेतृत्व के में मंत्रिमंडल बन गया था | पर प्रदेश की हालत अधिक खराब थी | और कांग्रेस के कुछ सदस्य डॉ राय को ही मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे | पर डॉक्टर आए उन दिनों गांधी जी के पास उनकी देखभाल कर रहे थे अंततः डॉक्टर राय के वहां आने पर ही नया मंत्रिमंडल बना उन दिनों भी वह प्रातकाल अपने दवाखाने में रोगियों को निशुल्क देखते थे | और उसके बाद कार्यालय जाते थे |

 

तथा वहां देर तक काम करते थे सन 1948 ई० में आप ने मुख्यमंत्री के रूप में बंगाल की बागडोर संभाली आप के शासनकाल में हुए बंगाल के विकास कार्य सदा सदा के लिए आप की याद दिलाते रहेंगे | दुर्गापुर में लोहे और इस्पात का कारखाना, एसिड का कारखाना, दामोदर घाटी परियोजना, मयूराक्षी जलाशय, गंगा बांध परियोजना, कोलकाता महानगर के दुग्ध वितरण की योजना आदि योजनाएं आज भी आपके देश की गाथाएं कहती हैं |


मुख्यमंत्री बन जाने के बावजूद आप रोगियों के निस्वार्थ भाव से सेवा किया करते थे | रोगी के प्रश्न मन से सेवा करना आपका स्वभाव था | आपके निवास स्थान पर हर सुबह रोगियों की भीड़ लगी रहती थी | उन्हें डॉक्टरों और अस्पतालों से निराश हुए |

 

रोगे जब आपके पास लौट कर आते, तो आप अपने व्यस्त जीवन में से भी समय निकालकर उनकी सेवा अवश्य करते इस देश में सर्वप्रथम आपने ही मृत्युंजय औषधि बनाने का कारखाना खोलने की व्यवस्था की अपने निवास स्थान तक को आपने देश सेवा के लिए दान कर दिया था | आपने कभी दो पल भी विश्राम नहीं किया आपका अमोघ मंत्र था , मैं उसी दिन रुकूंगा जब मृत्यु मेरे द्वार पर आएगी |


जीवन के 40 वर्षों तक आपने लगातार देश सेवा का कार्य किया और अनेक अस्पतालों के साथ भी जुड़े रहे आपकी इन सेवाओं को देखकर सन 1944 ई० में कोलकाता विश्वविद्यालय ने आपको
डी.एस. डी.की मानद उपाधि प्रदान की थी | आपके निस्वार्थ समाज सेवा सफल साधना के फल स्वरुप आपको सम्मान की कभी कमी नहीं रही |



महामहिम राष्ट्रपति द्वारा उन्हें सन् 1961 में भारत रत्न से अलंकृत किया गया |


1 जुलाई 1962 को जब लोग आपका जन्म दिवस मनाने की पूरी तैयारी कर रहे थे , तब किसे पता था, कि जन्मदिवस ही निधन दिवस में बदल जाएगा | सारा भारत आपके बिछोह में रो पड़ा था | 80 वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया था |

 

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