Indian Democracy Essay in Hindi - Challenges to Indian Democracy

Indian Democracy Essay – भारतीय लोकतंत्र कहां जा रहा है

 

 

मूलतः लोकतांत्रिक (Indian Democracy Essay) व्यवस्था का तात्पर्य है ,जनता का जनता के लिए एक तथा जनता द्वारा शासन पर क्या आज या मूल धारणा वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सार्थक प्रतीत हो रही है| क्या आज शासन जनता का है, या बात केवल ऐतिहासिक होकर रह गई हैं।

 

यदि भारत देश की शासन व्यवस्था का अध्ययन करने के लिए इतिहास के पन्नों को पलट कर देखा जाए, तो आप भी आप सभी के समक्ष स्वता ही भारत के प्राचीन जनतांत्रिक शासन व्यवस्था का उधार उधार स्वरूप उभरकर आ जाएगा।

 

किंतु क्या आज की वर्तमान लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था प्राचीन लोकतांत्रिक शासन (Democratic governance) व्यवस्था के उद्देश्य को पूर्ण करने में सक्षम है, सर्वदा नहीं हमारे देश की प्रसिद्ध तांत्रिक जुड़े जर्जर हो चुकी हैं | जो देश को संभालने वाले वही देश को खाए जा रहे हैं , सर्वत भ्रष्टाचार व्याप्त है, ऐसे में प्रश्न उठता है , कि देश के महान व्यक्तियों द्वारा सौंपी गई लोकतांत्रिक व्यवस्था (Democratic system) को कैसे सुरक्षित किया जाए।




 

हमें या कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए , कि आजादी के 60 साल में ही हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था (Democratic system) इतनी जरूरत हो गई है| कि उसे बुढ़ापे की शिथिलता ही कहा जा सकता है, अतः विद्यमान व्यवस्था सुदृढ़ एवं सशक्त बनाने के लिए हमें राजनीतिक सामाजिक व आर्थिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार को दूर करना होगा।

 

तुलसीकृत रामचरितमानस एक ऐतिहासिक का वह इसे काव्य में इतिहास भी कहा जा सकता है , इसमें आधुनिक इतिहास सम्मत पद्धति से वास्तविक तिथियों विधियों का उल्लेख भले ही ना किया गया हो, किंतु इसमें जो रचना दृष्टि अपनाई गई है। वह सशक्त इतिहास का सृजन करती है, अतः इसके तथ्य इतिहास की भांति ही प्रमाणित प्रतीत होते हैं।

 

इस महाकाव्य में मानव जीवन के विविध क्रिया कार्यकलापों का विशद वर्णन किया गया है , साथ ही उलझन पूर्ण समस्याओं का सार्थक समाधान भी प्रस्तुत किया गया है।  इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें दुंदास में विषयों के बीच अद्भुत समन्वय स्थापित किया गया है, निर्गुण और सगुण जीव और ब्रह्म ज्ञान और भक्ति से और वैष्णव लोकमत और वेद शक्ति और सौंदर्य संस्कृत भाषा और लोकसभा यहां तक कि राजतंत्र और जनतंत्र में भी संबंध में स्थापित किया गया है।

 

 

आधुनिक युग में लोकतंत्र को सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली माना जाता है – Democracy is Considered the Best Governance System in the Modern era.

 

समस्त विश्व में इसकी भूरी भूरी प्रशंसा की जाती है , क्यों ना हो इस प्रणाली में जनता द्वारा जनता के कल्याण के लिए जनता द्वारा शासन किया जाता है , अर्थात जनता स्वयं अपना शासन चलाती है , और अपनी सुख समृद्धि शांति व्यवस्था आदि का प्रबंध करती है, और इस प्रकार व किसी निरंकुश राजा या अधिनायक की सुरक्षा चाहिता निरंकुशता एवं आतंक से मुक्त रहती है , वस्तुत रामचरितमानस में जिस व्यवस्था पर आधारित शासन प्रणाली का वर्णन किया गया है, उसकी चरम परिणति है , राम राज्य की स्थापना।




उस समय देश में राजतंत्र का बोलबाला था।  किंतु कौशल राज्य में नियमित राष्ट्र स्थापित था वहां जनता की इच्छा जनता के कार्यों वचनों एवं सुझाव के द्वारा अभिव्यक्त होती थी।  इसकी अभिव्यक्ति के अन्य स्रोत थे, गुरुजन, ऋषि गण, मंत्री गण एवं विद्वज्जन।  यह विशेष व्यक्ति जनता में व्याप्त राजनीतिक सामाजिक और सांस्कृतिक विचारों में राजा को अवगत कराते रहते थे, और उसे लोग रंजन लोक कल्याण और लोक सेवा के लिए प्रेरित किया करते थे।

 

विगत कुछ शताब्दियों में अनुशासन प्रणालियों विशेषकर राज्य तंत्र की इतनी निंदा की गई है, कि लोगों को इसमें दोष ही दोष दिखाई पड़ने लगे हैं।  साथ ही जनतंत्र प्रणाली की इतनी प्रशंसा की गई है, कि वह सुख प्राप्ति या कहिए स्वर्ग प्राप्ति का सर्वोत्कृष्ट सोपान प्रतीत होने लगी है, जबकि दोष जनतंत्र में भी है , और विशेषकर वर्तमान युग में इन दोनों का समन्वित रूप अधिक कल्याणकारी होगा, भ्रष्टाचार से आंदोलित आंदोलित भारत के वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है , कि यहां भी एक नए परिधान में या संबंधित प्रणाली भी अधिक श्रेष्ठ हो सकती है।

 

 

हमारे देश का शासन संसदीय लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के तहत चलाया जाता है |

 

लोकतंत्र का मूल आधार है लोग मत अर्थात जन्नत जन्नत अर्थात जनादेश लोकतंत्र और लोकमत (Democracy and public opinion) की चर्चा चुनाव के समय बहुत होती है, चुनाव के पूर्व अनुमानों का सिलसिला चलता है। और चुनाव के बाद परिणामों के विश्लेषण की होड़ लगती है। किंतु इस होड़ और दौड़ में लोकतंत्र और लोकमत (Democracy and public opinion) की उन मूल प्रवृत्तियों को अनदेखा कर दिया जाता है, जो केवल वर्तमान अतीत और भविष्य का संकेत ही नहीं देती उनका निर्णय भी करती है।

 

 लोकतंत्र और लोकमत (Democracy and public opinion) में लोग और मत का वैशिष्ट्य जाने विचारे बिना अपनी बातें कह दी जाती हैं।  बात लोकमत किसान की गणना और लोकतंत्र की शासकीय प्रक्रिया पर आकर ठिठक या रुक जाती है।  क्योंकि हमने अपने लोकतंत्र का आदर्श इंग्लैंड को माना है इसलिए हम इंग्लैंड में विकसित इस पद्धति का दुष्परिणाम भी भोग रहे हैं।




Democracy – लोकतंत्र का विनिमय और नियंत्रण लोकमत से होता है (Democracy is exchanged and controlled by public opinion) लेकिन लोकमत का परिष्कार और संस्कार करने वाले करते रहने का कार्य भी तो कोई करता होगा या किसी को करना चाहिए, कि नहीं लोकतंत्र का परिष्कार लोकसत्ता द्वारा लोकतंत्र का विनिमय और निर्देशन करने में उसे लोग हितकारी बनाकर रखने की चिंता चिंतन और व्यवस्था के बाद का महत्व शासन तंत्र का संचालन करने की तुलना में इसीलिए अधिक है।  कि इसके अभाव में शासक शासन प्रशासन संवेदन शून्य क्रूड स्वार्थी पतित और निरंकुश हो सकता है, यह सभी जनहित के विरुद्ध कार्य कर सकते हैं।

भारत विश्व का एक अति प्राचीन देश और राष्ट्र है, यही सबसे लोकतांत्रिक और गढ़ राज्य शासन व्यवस्था का विकास हुआ था। अथर्ववेद में इसका प्रमाण है, यहां राजा और राजतंत्र को कानून बनाने का अधिकार नहीं था| उसे केवल धर्मानुसार शासन करने अथवा चलाने का अधिकार था और वह अधिकार अधिकार कम कर्तव्य अधिक होता था।

 

भारतीय परंपरा और पश्चिमी लोकतांत्रिक परंपरा – Indian tradition and Western democratic tradition

 

भारतीय परंपरा और पश्चिमी लोकतांत्रिक परंपरा में भी सार्वजनिक क्षेत्र में काम करने वाले लोगों विशेष रूप में विधायकों और मंत्रियों के व्यक्तिगत जीवन और सार्वजनिक जीवन को अलग अलग कर नहीं देखा जाता, जिस व्यक्ति का व्यक्तिगत जीवन भ्रष्ट है| उसका सार्वजनिक जीवन शुद्ध नहीं हो सकता, इसीलिए ब्रिटेन और अमेरिका में चर्चित रुजवेल्ट आज ऐसे शासकों को जिनका व्यक्तित्व व्यक्तिगत जीवन अति निर्मल था विशेष मान दिया गया है।

 

स्वतंत्रता के बाद भारत में भ्रष्टाचार बढ़ने का कारण सेक्युलर वाद के नाम पर अपनाई गई गलत शिक्षा नीति और धर्म तथा मजहब के सही अर्थों के संबंध में अनभिज्ञता तथा अनुज कर उन्हें गलत करने की नीति है।

 

किसी भी मजहब को ना मानने वाला व्यक्ति भी धर्म का धर्म आता हो सकता है। जबकि धर्म में निहित मूल्यों को अपने जीवन में धारण ना करने वाला बड़े से बड़ा मुल्ले मौलवी पोप और पुजारी धार्मिक और भ्रष्ट आवश्यकता है।  इसीलिए भारतीय अथवा हिंदू राज्य पद्धति के अनुसार राजा का राजतिलक करते समय उसे कहा जाता था , कि तू प्रजा का शासक है, परंतु धर्म तुम्हारा शासक धर्म है, तुम्हें धर्मानुसार आचरण करना होगा, धर्म का दंड तुम्हारे ऊपर रहेगा।

 

हमारा लोकतंत्र थक गया है – Our democracy is tired

 

वर्तमान परिस्थितियों को देखकर लगता है, कि 5000000 में ही हमारा लोकतंत्र थक गया है| बुढ़ापे के सारे लक्षण उभर कर आ गए हैं , सभी अंग ऐसे सिथिल पड़ गए हैं ,कि उनमें सामान्य उपचार से किसी सुधार की गुंजाइश ही नहीं दिखाई दिखाई देती लोग कहते हैं , कि पिछले दशक के दो-तीन साल घोटालों के साल रहे हैं, साथ ही वे इसे न्यायिक सक्रियता का दौर भी कहने लगे हैं।

 

दोनों का दरअसल चोरी चोली दामन का संबंध है, यह सभी घोटाले इन्हीं दो-तीन सालों में ही हुए पहले से होते हो रहे हैं।  बिहार का चारा घोटाला हो खूब भाई का मामला हो या फिर हवाला कांड हो सभी की जड़ें बरसों पहले ही जमी थी जिस राज्य में जयप्रकाश नारायण के बेस्ट आचार कुशासन और अधिनायक अधिनायक वादी प्रवृत्तियों के खिलाफ जोरदार आंदोलन चलाया था।  राजनीतिक और प्रशासन को स्वच्छ बनाने का संकल्प लिया था वहीं राज्य भ्रष्टाचार कुशासन और हिंसा का प्रतीक बन गया है।




यह एक संस्था है , जिसमें आम जनता की उम्मीद जगी है

 

कुछ आशावादी लोग कहते हैं, कि कम से कम अदालतें अपनी भूमिका तो निभा रही हैं। यह एक संस्था है , जिसमें आम जनता की उम्मीद जगी है, लोगों की इच्छा है, कि अदालतें अपनी सक्रियता जारी रखें अंग्रेजी का मुहावरा है कि इच्छाएं अगर घोड़े होते तो विपन लोग उनकी सवारी करते हवाला कांड को ही ले शुरू में लगा था कि अदालतों की फटकार खाकर खुफिया ब्यूरो आनन-फानन में राजनीतिक दिग्गजों को जेल की हवा खिलाई गई कुछ आभास से स्वयं अदालत में भी दिया है लेकिन क्या अब तो बरस भी गुजर गए लेकिन हम लोग वहीं का वहीं उनमें से बहुत से चुनाव जीतकर फिर आ गए कुछ तो मंत्री भी बने।

 

हमारी अवस्था हवाला कांड के कच्चे पक्के सबूतों को झूठा ही पाई थी कि घोटालों की बाढ़ आ गई चारों और फैलाने की क्षमता तो उसमें है  नहीं, चादर ही  इतनी छोटी है, कि सिर ढक ले तो पांव नंगे होते हैं, पांव ढकते हैं, तो सिर नंगा होता है।  हमारे पास इतने सारे मामलों को तेजी से निपटाने के लिए आदमी कहां है, हर राज्य में होने वाली छोटी बड़ी घटना में खुफिया ब्यूरो द्वारा जांच कराने की मांग की जाती है।




यह प्रवृत्ति एक गंभीर रोग की ओर इशारा करती है सभी राज्य अपने यहां सभी घटनाओं की जांच केंद्रीय एजेंसी से क्यों करवाना चाहते हैं, वहां की सरकारें चाहती हो या नहीं वहां का विपक्ष मांग करता ही रहता है।  क्या जालसाजी हत्या या दंगा फसाद की जांच करना राज्यों का दायित्व नहीं है है, तो क्या यह माना जाए कि उनकी जांच एजेंसियां पुलिस और नौकरी चाहिए इस लायक रही है, नहीं कि वे निष्पक्ष जांच कर सके जो हालात हैं, उनमें मानना तो यही पड़ेगा| सभी को चुनाव आएगा, आयोग से उम्मीद थी लेकिन चुनाव आयोग की सक्रियता का बुलबुला जल्दी ही फूट गया।

 

चुनाव आयोग और न्यायालय अपने आप में स्वतंत्र नहीं है – The Election Commission and the Court are Not independent in Themselves

 

दरअसल हमारी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के यह दोनों अंग चुनाव आयोग और न्यायालय अपने आप में स्वतंत्र नहीं है, अदालतें कितनी भी सक्रिय हो उनके फैसलों का दारोमदार उनके सामने रखे गए दस्तावेजों और सबूतों पर होता है, या दस्तावेज डालते स्वयं नहीं जुटा पाती जिस जनहित याचिका रूपी हथियार का इस्तेमाल पिछले कुछ सालों में काफी बड़े पैमाने पर होने लगा है।

 

उसकी भी अपनी सीमाएं हैं, आप शिकायत कर सकते और अपनी शिकायत की पुष्टि में कुछ तथ्यों और कुछ संभावित सबूतों के बारे में जानकारी दे सकते हैं, लेकिन असली जांच तो उसी तंत्र को करनी होगी जो सरकार के हाथ में है , या कहना कि खुफिया तंत्र पर सरकार का असर नहीं होगा अपने आप को धोखे में रखना है आखिर खुफिया तंत्र का गठन सरकार ही तो करती है।




उसे कितना बड़ा और कितना सक्षम बनाया जाए और फैसला भी सरकार ही करेगी दो चार मामलों में भले ही अदालत ने सरकारों के हाथ बांधे लेकिन यह गलतफहमी पाल ना कि घोटाले सिर्फ उतने ही हैं, जितने प्रकाश में आए हैं, सही नहीं होगा फिर अदालतों के फैसलों के बाद उन पर अमल करना अदालतों का काम नहीं है।  उन पर मुस्तैदी से अमल होना होता है, या जांचने का हमारे पास कोई संस्थागत पैमाना नहीं है ज्यादा से ज्यादा इस सक्रियता का इतना ही फायदा या नुकसान हुआ है।  कि राजनीति के शीघ्र पर बैठे हुए अनेक लोगों और नौकरशाही के मुखिया को सार्वजनिक रूप से नंगा करने की सुविधा उपलब्ध हो गई है ,लेकिन इससे क्या होता है, यही ना कि इस हमाम में सभी नंगे हैं, अगर सभी नंगे हैं , तो नंगई का आरोप किस पर लगाया जाए।

 

राजनीतिक गतिरोध है, दरअसल इस अवस्था के लिए जिम्मेदार है

 

राजनीतिक गतिरोध है, दरअसल इस अवस्था के लिए जिम्मेदार है, क्योंकि राजनीति हमारे देश में ठहराव की स्थिति में आ गई है, हमारे राजनेताओं के भ्रष्टाचार ने देशवासियों को जितनी बड़ी मार लगाई है, उसका प्रमाण यही है। कि देश मूड सा हो गया है, संज्ञाओं सा हो गया है, इसे देश के कुछ व्यक्तियों के गैरकानूनी कार्य मानकर छोड़ दिया जाता है, ना कि राष्ट्र पर आया संकट।

 

तंत्र में वह शक्ति तथा इच्छा नहीं रही कि अपराधियों से राष्ट्र की सत्ता बचा सके।  ऐसे हर प्रसंग में जैसे होता है , जैसा कि भाड़ में भूकंप में आग में सांप्रदायिक दंगों में कि कोई ना कोई शौर्य वाहन भी अपना जीवन दिखा देता है।  वैसे ही राष्ट्र की इस संकट की घड़ी में कोई पुलिस अफसर कोई सरकारी अफसर कोई न्यायाधीश भी ऐसे सामने आ गए हैं, जिनसे प्रजा में प्राण होने का प्रमाण मिलता है।

 

लेकिन कुछ वीरों के जीवट भरे प्रसंगों से विभीषिका नहीं रुकती वैसे ही कुछ इमानदार और जीवट वाले अफसरों के कारण यह कुछ एक ऐसे नए पदों को बना देने के भ्रष्टाचार का संकट टल जाएगा | जमाना हास्यास्पद है, लोकपाल इत्यादि होती है, बहस ऐसे ही लोगों को बहला सकती है, जो आज भी मध्ययुगीन यूरोप में जीते हैं | और सोचते हैं, कि जैसे उन तीन तिलंगो में फ्रांस के राज्य को संकट डाल दिया था।




वैसे ही कुछ कानून कानून जी मुस्केटियर्स तिरंगे भारत के राज्य को भ्रष्टाचार से बचा लेंगे।  लेकिन मूल बात तो यह है, कि हमारी स्थिति रक्षक के कमजोर हो जाने की नहीं है, ऐसा हो तो उसके हाथों को मजबूत करने के लिए उपाय ही उचित होते हैं, यही करने भी चाहिए उसके हाथ में अधिक कारगर हथियार भी दिए जा सकते हैं। तथा उसके हाथ उन्हें थाम सकते हैं, इसीलिए उसे अधिक पोषण भी दिया जा सकता है, लेकिन अगर रक्षक ही भक्षक बन जाए, तो क्या तब भी उसके हाथ में ताकतवर हथियार देंगे, इस राजतंत्र में एक और सुपर सत्तधारी पैदा करेंगे।

राज्य तंत्र के भ्रष्टाचार और अपराधीकरण को लेकर 3 मान्यताएं हो सकती है |

 

एक राज्य तंत्र में दोष नहीं है, वह निर्दोष है, जो राज्य तंत्र में कुछ अपराधी भ्रष्टाचारी व्यक्ति आ गए हैं।  कुछ कानून कुछ व्यवस्थापकीय सुधार करने में ईमानदार देशभक्त लोगों के लिए राज्यकर्ता बन्ना सरल हो जाएगा , और तीन केवल भ्रष्टाचारी अपराधी ही राज्य तंत्र में आ सकता है।  अभी जो हो रहा है, वह केवल शुरुआत है, अब तक जो था, इसकी पूर्व तैयारी थी।

राज्य किस प्रकार के किस चरित्र के लोगों के हाथों में रहेगा या इससे निर्धारित होता है।  कि उस विशेष समय में राज्य के शक्तियों के आयोजन से बना है, राज्य की धारक शक्ति कौन सी है।  विभिन्न क्षेत्रों में से कौन सी सत्ता है , जो प्रभुसत्ता बनी हुई है, इन संस्थाओं का आपसी संबंध क्या है, किसका कितना प्रवृत्तियां गुरुत्व है, किसका कितना विनिपात है।

आधुनिक सभ्यता का मर्म ही यह है, कि वह वित्त को आर्थिक सत्ता को ही प्रवक्ता के रूप में स्थापित प्रतिष्ठित करके उसे सत्ता के अनुकूल राजतंत्र का निर्माण करती है।  यही आधुनिक राज्य का आधुनिक सभ्यता का हमारी मौजूदा संस्कृत का अर्थ है, तथा यहीं पर वाद जिससे हम भारतीय संस्कृत कहते हैं।  उसके मूल में ही अंतर करके बड़ी है, आधुनिक सभ्यता तथा उसके राज्य को गांधी जी ने इसीलिए आसुरी कहा है, कि वह केवल अर्थ प्रधान वित्त प्रधान है, वित्त की सत्ता सर्वोपरि है, पैसा ही प्रभु है।

 

वित्त की सत्ता सर्वोपरि है, पैसा ही प्रभु है – The power of finance is paramount, money is the lord.

 

ऐसा क्यों है ! तथा इससे भिन्न क्या हो सकता है, सूत्रात्मक रूप से इतना भर कहना जरूरी है, कि धर्मनिरपेक्ष राज्य का भारत में यही अर्थ है, और रेशन लिस्ट – साइंटिफिक, सेल्यूलर राज्य दर्शन अर्थात मूलभूत रूप से पश्चात या आधुनिक संस्कृत के दर्शन का भी यही तात्पर्य है, राष्ट्र पर आया राज्य तंत्र के अपराधीकरण या भ्रष्टाचार का संकट वास्तव में आधुनिक संस्कृत की सेवा में खड़े किए गए हैं।

 

राज्य तंत्र से भारत के लोगों को अनुकूल करने की प्रक्रिया है राज्य इस राज्य को जिस प्रकार का राज्य संचालन वर्ग चाहिए उसे खड़ा करने कि उसे अपनी भूमिका निभाने में सक्षम बनाने की प्रक्रिया है।  वित्त की सत्ता का प्रभुसत्ता होने का अर्थ है, पाश्चात्य देशों की सत्ता के सर्वर परिता को स्वीकार उनकी सेवकाई नहीं भूलना चाहिए| कि उदारीकरण के नाम पर बाजार के वैश्वीकरण के साथ ही भ्रष्ट और अपराधी व्यक्तियों की सत्ता और शक्ति के जबरदस्त वृद्धि हुई है, पूरा तंत्र इन शक्तियों के ही प्रभाव में चलने लगा है।

 

उनके मुंह अरे कोई भी हो मोहरों की लड़ाई में लोगों का ध्यान लगाकर यह शक्तियां अपना अपना काम तो कर ही रही हैं।  पश्चिमी वित्तीय और आर्थिक सत्ता के साथ भारत जिस प्रकार के शब्दों से बंधा जा रहा है, वह क्या कम बड़ा अपराध है राष्ट्र के साथ या बहुत संभव है, कि कल इस देश की रक्षा के लिए लड़ने हेतु शौर्य 1 लोग ही इस देश में न रहें और अगर होंगे तो वह किस तरह से ऐसे राज्यकर्ता समूह के आदेश पर देश के लिए प्राण निछावर करेंगे ,क्या यह चिंता का विषय नहीं , कि भारतीय वायुसेना को छोड़कर विदेशी प्रवासी वायुसेना में हमारे नौजवान जाने लगे हैं, इन्हें एक लाख की यह 50 हजार के नौकरी के बदले वायु सेना, स्थल सेना में रहने के लिए कौन प्रेरणा दे सकते हैं।

 




राज्यकर्ता का यह क्षय आधुनिक सभ्यता में वित्त ही सर्वोपरि पैदा होने का परिणाम है।  और उसी को सर्वोच्च सत्ता के स्थान पर बैठकर राज्य का एकमात्र उद्देश्य उसकी सेवा करने में है, इस संदर्भ में विकास की आधुनिक व्याख्या तथा दिशा भी यही है, इसे हमें समझना पड़ेगा क्यों विकास का अर्थ केवल भौतिक सुख-सुविधा बढ़ाना ही है. क्यों इस अवधारणा में मनुष्य की व्याख्या बहुत लक्ष्य है, उस उसके जीवन का उद्देश्य आवाज हित भोग विलास और मनुष्य क्या केवल शरीर ही है, इंद्रिय सुख ही मनुष्य का जीवन है , लेकिन जब हम राज्य और धर्म राजनीति और धर्म की बात उठाते हैं| तो उसे तोड़ मरोड़ कर हिंदू मुस्लिम पर ला दिया जाता है।  संप्रदायिक बना दिया जाता है, यह प्रश्न तक नहीं उठाया जाता कि राज्य का धर्म क्या है ,राज्यकर्ता का धर्म क्या है , विकास का धर्म क्या है ?

 

भ्रष्टाचार और अपराध के ही बल पर राज्य सत्ता की प्राप्ति जिस राज्य में संभोग बनती है, उसके मूल में ही पढ़े दोस्त को देखे बिना और सुधारे बिना किए गए अन्य उपायों का अपना उचित नहीं होगा ऐसा नहीं मानना चाहिए लेकिन ऐसे उपायों के परिणाम स्वरूप भ्रष्टाचार अर्थात राज्यकर्ता वर्ग द्वारा चलाई जाती लूट का रूप और सस्ता बदलेगा आधुनिक विकासवाद में शक्तिशाली को लूट की ना केवल छूट है, इस लूट को ग्रोथ यानी अर्थ तंत्र का वित्तीय सत्ता का विस्तार कहा जाता है।

 

यदि समय रहते भ्रष्टाचार पर रोक नहीं लगाई गई, तो ना केवल लोकतंत्र अपितु देश की एकता और सुरक्षा भी खतरे में पड़ जाएगी |

 

इसीलिए देश के मनीषियों और राष्ट्रीय तहसील को भ्रष्टाचार की जड़ में जाना चाहिए।  उसके विभिन्न आयामों को समझना चाहिए और इसे खत्म करने के लिए दलगत भावना से ऊपर उठकर समन्वित पग उठाने के लिए जमीन तैयार करनी चाहिए।  सबसे पहले आवश्यकता राजनीति में भ्रष्टाचार लोगों को बोलबाला खत्म करने की है, जब तक देश का प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री और राजनेता भ्रष्टाचार के घेरे में रहेंगे कोई प्रयत्न सफल नहीं होगा अभी सभी लोग सामने मानने लगे हैं।

 

कि यदि देश के पहले प्रधानमंत्री सरदार पटेल होते तो स्थिति सर्वथा भिन्न होती परंतु जो बीत गया उस पर रोने से कुछ बनेगा नहीं।  देश में आज भी अच्छे और भले व्यक्ति हैं , परंतु भ्रष्ट ने राजनेताओं ने उन्हें राजनीति से खदेड़ रखा है ,या हारे हाशिए पर रखा है।  फल स्वरुप अच्छे लोग राजनीति में आने से घबराने लगे हैं।  यह स्थित बदलनी होगी अच्छे लोगों को आगे लाने का प्रयत्न होना चाहिए।  राजनीति को कोसने से काम नहीं चलेगा , शासन तो राजनीति के द्वारा ही चलेगा, इसीलिए राजनीति को शुद्ध करना होगा, इसमें अच्छे लोग आगे लाने होंगे।




यदि देश के मतदाता है, यह मन बना ले कि किसी भ्रष्टाचारी अपराधी शराबी और व्यभिचारी को या किसी ऐसे व्यक्ति को जिस पर हत्या के मामले में संदेह की उंगली उठती हैं।  जीतने नहीं दिया जाए, और प्रत्याशियों के व्यक्तिगत जीवन की छानबीन भी की जाएगी, तो चुनाव के बाद देश की राजनीति को कुछ हद तक शुद्ध करने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा, इसका प्रभाव सब पर पड़ेगा।

साथ ही शिक्षा के क्षेत्र में नैतिक शिक्षा को महत्व देने आर्थिक नीतियों को राष्ट्र की परंपराओं परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुरूप ढालने और जन जन के मानस के भारतीय करण करने के लिए अभियान चलाने की आवश्यकता है।

अतः चुनावों में सदाचार और सदाचारी लोगों को प्रमुखता देने की ओर भी ध्यान देना होगा, यह संतोष का विषय है, कि इस दिशा में कुछ मनीषियों और संतों ने सोचना शुरू किया है, इस सोच को भ्रष्टाचार के विरुद्ध और सदाचार के पक्ष में जन जागरण अभियान का ठोस रूप दिया जाना चाहिए।

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