प्रारम्भिक भारतीय इतिहास लेखन से सम्वन्धित विभिन्न पद्धतियों का विवेचन कीजिए।

प्रारम्भिक भारतीय इतिहास लेखन से सम्वन्धित विभिन्न पद्धतियों का विवेचन कीजिए।

 

इतिहास की लिखने और गढ़ने की पद्धति को इतिहास लेखन (Iistoriography) कहा जाता है। भारत में आधुनिक मानकों पर इतिहास लेखन का कार्य अठारहवीं सदी में शुरू हुआ। 1784 में कलकत्ता में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल की स्थापना से इसकी शुरुआत हुई। भारतीय इतिहास लेखन की पद्धतियों को निम्न रूप से समझा जा सकता है-

 

1. प्राच्यविदों और भारतीयविदों की पद्धति

 

अठारहवीं और उन्नीसवीं सदो में प्रच्यविदों और भारतविदों के लेखन ने भारतीय इतिहास लेखन को प्रभावित किया। सर विलियम जोन्स और चार्ल्स विलिकन्स ने भारतीय साहित्य और संस्कृति में गहरी अभिरुचि प्रदर्शित की। भारतविद के रूप में जर्मन विद्वान मैक्समूलर सर्वाधिक प्रतिप्ठित हुए। उनके प्रयासों के कारण हो भारोपीय स्वदेश और विरासत की अवधारणा विकसित हुई। भारत को दार्शनिकों के देश के रूप में पहचानने वाले मैक्समूलर जैसे विद्वानों ने यह अवधारणा विकसित की कि भारतीय मानस में राजनीतिक और भौतिक निन्तन की क्षमता नहीं है। भारतीयों में इतिहास वोध नहीं है। इनमें राष्ट्रीयता की भावना और स्वराज्य की भावना विकसित नहीं हुई थी।

2. चार्ल्स ग्रांट और उपयोगितावादी पद्धति

 

चाल्ल्स ग्रांट, जेम्स मिल जैसे इतिहासकार आरंभिक प्राच्यविदों से सहमत नहीं थे इन्हें उपयोगितावादी इतिहासकार माना जाता है। उपयोगितावादियों ने भारतीयों को बर्बर, विवेकहीन और राजनीतिक मूल्यों से सर्वथा असम्बद्ध वताया है। उन्होंने ‘ भारत भीति’ (इण्डोफोबिया) का सिद्धान्त विकसित किया। इन इतिहासकारों ने भारतीय समाज को अप्रगतिशील और अवरुद्ध माना था।

3. ब्रिटिश प्रशासन से जुड़े इतिहासकार

 

ब्रिटिश प्रशासन से जुड़े इतिहासकारों में विसेण्ट ए. स्मिथ का नाम सबसे ऊपर है। स्मिथ ने भारतीय इतिहास का व्यवस्थित सर्वेक्षण किया था । उनका मानना था कि भारत में निरंकुश शासकों का लम्या इतिहास रहा है । उन्होंने भारतीय राजाओं के शासन से जुडी विशेषताओं का अध्ययन किया वे प्रशासन की कठोरता को विशेष रूप से सामने लाए। ब्रिटिश प्रशासन से जुड़े इतिहासकारों ने औपनिवेंशिक शासन व उसके द्वारा भारतीय संसाधनों के दोहन को न्यायपूर्ण और नैतिक सिद्ध करने के उद्देश्य से इतिहास लेखन का काम किया। इन इतिहासकारों के ऐतिहासिक साक्ष्यों को विकृत करने वाला माना जाता है।

4. भारतीय इतिहासकारों की पद्धति

 

भारतीय इतिहासकारों में आर. एल. मित्रा, एस. के. आयंगर, आर.जी. भंडाकर, के.पी. जायसवाल, के.एन. शास्त्री, आर.सी. मजूमदार, वी. के. राजवाड़े और पी. वी. काणे आदि का नाम सम्मिलित है । इन इतिहासकारों ने भारतीय सुधारवादी नेताओं और राष्ट्रवादी आन्दोलनों के
प्रभाव में भारतीय इतिहास के पुनर्निर्माण का प्रयास किया। आर.एल. मित्रा, आर.जी. भंडारकर और वी. के. राजवाड़े आदि इतिहासकारों ने समाज सुधार और प्राचीन भारतीय मूलग्रन्थों की अध्ययन के पृष्ठभूमि में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। जैसे-भंडारकर ने विधवा पुनर्विवाह का समर्थन एवं जाति प्रथा और बाल-विवाह जैसी बुराइयों की निन्दा की।

राजवाड़े ने मराठी में विवाह की संस्था के विकास पर गम्भीर अध्ययन प्रस्तुत किया। भारतीय इतिहासविदों पर उग्र राष्ट्रवाद का प्रभाव दिखाई देता है। इन्होंने भारतीय इतिहास के प्राचीन काल को सामाजिक शांति, सामजस्य और समृद्धि का प्रतीक माना है। गुप्तकाल को प्राचीन भारत के स्वर्णयुग के नाम से स्थापित किया गया। इन इतिहासकारों ने राजनीतिक सिद्धान्त और व्यवहार के क्षेत्र में भी हिन्दुओं को सर्वोच्च उपलब्धियों से सम्पन्न मानने की अवधारणा स्थापित की।

 

कौटिल्य के अर्थशास्त्र की तुलना बिस्मार्क के सामाजिक सिद्धान्तों से, प्राचीन भारत के जनजातीय कुलीनतंत्र को तुलना एथेंस के प्रजातन्त्र से तथा ब्रिटेन के संवैधानिक राजतंत्र और कौटिल्य के राजतंत्र की तुलना इस इतिहास पद्धति में होती है। भारतीय इतिहासविदों की रचनाओं ने आजादी की लड़ाई का एक सैद्धान्तिक आधार तैयार किया था। इन इतिहासकारों की रचनाओं ने भारतीय इतिहास का कोई वैज्ञानिक काल निर्धारण विकसित नहीं किया और न ही भारतीय संस्कृति के सामाजिक स्वरूप की ओर ध्यान दिया। इसे एकांगी इतिहास लेखन
की पद्धति माना जाता है।

1950 के दशक में प्रभावी मार्क्सवादी लेखन पद्धति ने सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आधारों पर भारतीय इतिहास के अध्ययन की परम्परा विकसित की। उन्होंने अपने अध्ययन विशलेषण को पुरातात्विक और मानवशास्त्रीय साक्ष्यों से जोडकर आरम्भिक भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था को समझने, समझाने का प्रयास किया। डी.डी. कौशाम्बी की ‘इंट्रोडक्शन टू दी स्टडी ऑफ इंडियन हिस्ट्री’ तथा ‘दि
कल्चर एण्ड सीविलाइजेशन ऑफ एन्सेण्ट इंडिया..ए हिस्ट्रोरिकल आउटलाइन’ को इस दिशा में महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

 

कौशाम्ब्री अपने अध्ययन में समाज, अर्थव्यवस्था और संस्कृति, उत्पादन की शक्तियों और सम्बन्धों के विकास को अभिन्न अंग के रूप में देखते हैं। मार्क्सवादी इतिहासकारों ने आर्थिक ढाँचे पर ही भारतीय समाज के सामाजिक, राजनीतिक ढाँचे के विकास को मूल्यांकित किया है। इतिहास लेखन की इन सभी पद्धतियों ने भारतीय इतिहास के वर्तमान स्वरूप को निर्धारित करने में अपना अमूल्य योगदान किया है।

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